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________________ १०२ ध्यानशतकम्, Parekarararerakarakarararatarrerakatereraturerakararararakaranatakarakalatara में प्रगट की गई है वैसे ही वह ध्यानशतक में भी इन्हीं गुणस्थानों में प्रगट की गई है। ६ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा ध्यानशतक में प्रकृत आर्तध्यान से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों की भी चर्चा की गई है । जैसे-वह किस प्रकार के जीव के होता है, कौनसी गति का कारण है, वह संसार का बीज क्यों है, आर्तध्यानी के लेश्यायें कौनसी होती है, तथा उसकी पहिचान किन हेतुओं के द्वारा हो सकती है; इत्यादि । ७ तत्त्वार्थसूत्र में जहां एक ही सूत्र के द्वारा रौद्रध्यान के भेदों व स्वामियों का निर्देश करते हुए उसके प्रकरण को समाप्त कर दिया गया है वहां ध्यानशतक में तत्त्वार्थसूत्रोक्त उन चार भेदों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसके स्वामियों का भी निर्देश किया गया है । इसके अतिरिक्त वहां आर्तध्यान के समान रौद्रध्यान के भी फल व लेश्या आदि की चर्चा की गई है । ८ तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र द्वारा धर्मध्यान के चार भेदों का निर्देश मात्र करके उसके प्रकरण को समाप्त कर दिया गया है । पर ध्यानशतक में उसकी प्ररूपणा भावना, देश, काल, आसनविशेष, आलम्बन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग और फल इन बारह अधिकारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक की गई है । तत्त्वार्थसूत्रोक्त उसके चार भेदों की सूचना यहां ध्यातव्य अधिकार में करके उनके पृथक् पृथक् स्वरूप को भी प्रगट किया गया हैं । ९ जैसा कि ऊपर कहा जा चूका है तत्त्वार्थसूत्र में सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार धर्मध्यान के चार भेदों का निर्देश मात्र किया गया है, उसके स्वामियों का निर्देश वहां नहीं किया गया है । पर उसकी टीका स्वार्थसिद्धि में उसके स्वामियों का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि वह अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इनके होता है । उक्त तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यभूत तत्त्वार्थवार्तिक में पृथक् से उसके स्वामियों का उल्लेख तो नहीं किया गया, किन्तु इस सम्बन्ध में जो वहां शंका-समाधान है उससे सिद्ध है कि वह, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि में निर्देश किया गया है तदनुसार, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के होता है। १. त. सू. ९-३४; ध्या. श. १८ । २. ध्या. श. १०-१७ । ३. त. सू. ९-३५ । ४. ध्या. श. १९-२७ । ५. त. सू. ९-३६ । ६. ध्या. श. २८-६८ । ७. आज्ञाविचय ४५-४९, अपायविचय ५०, विपाकविचय ५१, संस्थानविचय ५२-६२ । ८. आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम् । त. सू. ९-३६ । (यहां मूल सूत्रों में आर्तध्यान (९-३४) रौद्रध्यान (९-३५) और शुक्लध्यान (९, ३७-३८) के स्वामियों का निर्देश करके भी धर्मध्यान के स्वामियों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया, यह विचारणीय है ।) ९. तदविरत-देशविरत-प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स. सि. ९-३६ । १०. त. वा. ९,३६, १४-१६ । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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