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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
चिंतइ य को इमं नणु , तुरंगमं रक्खिउं खमो इत्थ । जं रयणाइ महीए , पाएण अवायबहुलाई ॥११३३॥ जइ वा ममाणुरत्तो, सया वि वीसासभायणं परमं । जिणदासाभिहसिट्ठी, सुगिहीयगिहिव्वओ अत्थि ॥११३४।। पहुभत्तो दृढचित्तो, पमायपरिवज्जिओ महाबुद्धी । सो चेव तुरगरयणं, एयं परिरक्खिउं खमइ ॥११३५।। अह जिणदासं राया, आहविउं सप्पसायमाइसइ । मह जीवियं व तुमए , रक्खेयव्वो इमो तुरगो ॥११३६॥ सामिय ! तुह आएसो, मज्झ पमाणं ति भणिय जिणदासो । तं नेइ निययगेहे, तुरयं पाइक्कपरियरियं ॥११३७।। तो तस्स कए सिट्ठी, सव्वत्तो सुहमवालुयं खिविउं । गंगापुलिणसमाणं, सुहयं कारावए ठाणं ॥११३८॥ चारेइ तं च तुरयं, सो तीरठिओ सया वि हरियाई । सरसाइ कोमलाई, सव्वंगं पुट्ठिजणगाई ॥११३९॥ कोमलभूमिपएसे, कंटयलिट्ठहि वज्जिए सिट्ठी । तं चिल्लावइ तुरयं, सुहेण रज्जुम्मि धरिऊण ॥११४०।। पहावेइ तं सयं चिय, सुगंधसलिलेहि एगतत्तेहिं । पुत्तं व नियं सिट्ठी, जया जया अप्पणा हाइ ॥११४१॥ सयमेव समारुहिउं, तं तरयं सरवरम्मि नेऊण । पाएइ जलं निच्चं, सिट्ठी बंधइ य ठाणम्मि ॥११४२॥ सरवरगिहतराले, जिणभुवणं आसि अंतरीयं व ।। भवजलनिहिणो मज्झे, अक्कमियं तेण जं नेव ॥११४३।। मा जिणगिहस्स वन्ना, हवउ त्ति मईइ तुरयचडिओ वि । तिपयाहिणीकरेई , तं सो जंतो चलंतो य ॥११४४॥ तह तुरयारूढो वि हु , तत्तविऊ सोऽभिवंदिय देवे । मा एयस्स पमाओ, होउ त्ति न मुंचए तुरयं ॥११४५॥
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