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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
निद्दाछिदं कहमपि, लहिउं से आगया चिरेणाहं । इय तीइ बोहिओ सो, मिठो तं रमइ निस्संकं ॥ ९०२ ॥ अह निसिपच्छिमभाए, मिठं रमिऊण साहसनिही सा । करिणा करमारोविय, उक्खित्ता एइ नियठाणं ॥ ९०२ ॥ तं पिक्खिऊण चितइ, सुवन्नयारो अहो जुवइचरियं । वुद्धिं विहिपरिणामं, आसकुहक्कं च को मुणइ ? ॥ ९०३ ॥ विविहपयारेहि अहो, सुरक्खियाणं पि रायजुवईणं । इय होइ सीलभंगो, का वत्ता अन्ननारीणं ॥९०४॥ पाणीयाणयणाइसु, सया वि नयरम्मि संचरंतीणं । इयरगिहत्थपियाणं, सीलत्ताणं हवइ कत्तो ॥ ९०५ ॥ इय सुहाइ दुसील-तणचितं चइय सुन्नयारो सो । दिन्नरिणो अधमन्नो, इव सुत्तो निब्भरं तत्थ ॥ ९०६ ॥ सो जाए वि पभाए, सुवन्नयारो न जग्गए कह वि । तं तह सुत्तं च तर्हि, चेडीओ कहंति नरवइणो ॥ ९०७॥ निवई वि भणइ एवं, होयव्वं कारणेण केणावि । पडिबुज्झइ सो जइया, तइया मह पासमाणेओ ॥ ९०८ ॥ इय भणियाउ गयाओ, चेडीओ सो सुवन्नयारो वि । निद्दासुहं चिराओ, अणुभवई सत्त दिवसाई ॥ ९०९ ॥ सत्तमदिणावसाणे, सयमेव समुट्ठिओ स चेडीहिं । नीओ निवस्स पुरओ, निवो वि तं पुच्छए एवं ॥९१०॥ निद्दा तुह न कया वि हु, आयंती कामिणि व्व दुभगस्स । ता सत्तदि सुत्तो को हेऊ कहसु ते अभयं ॥ १११ ॥ सो तं निसिवुत्तंतं, नरिंदभज्जाइ तह करिंदस्स । मिट्ठस्स वि जह दिट्ठ, साहइ सव्वं पि निवपुरओ ॥ ९९२ ॥ रन्ना पसाइऊणं, विसज्जिओ सो गओ नियगिहम्मि । जाओ य जिण्णदुक्खो, जेण जणो धीरइ जणस्स ॥९९३॥
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