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सप्तमं धर्मभेदद्वारम्
मा मा भो ! अप्पाणं, आगमवयणाउ इय विडंबेह । सव्वं पि धुतविलसिय- मेयं सिद्धंतपरिकहियं ॥ १५०॥ साह गिहत्थाणावि, निरत्थयं नियमताडिया मरह | विलसह सिच्छाइ धणं, मा मज्जह साहुभणिएहिं ॥ १५१ ॥ जीवो इह तवनियमेहिं, सोसिओ परभवे वि तं लहइ । पुव्वभासेण तओ, भवे भवे होइ दुहभवणं ॥१५२॥ ता भद्द ! इहिमम्हे, रुक्खं छिंदिय इमस्स कट्ठेण । निम्माविऊण गेहं विलसिस्सामो जहिच्छाए ॥१५३॥ तुममवि निय(विल) संतधणो, मा नियमाईहि नडसु अप्पाणं । मागमसु जम्मबहलं, विमोहिओ धुत्तवयणेहिं ॥ १५४ ॥ अह सुरदत्तो भइ, किं मुणिणो सन्निवाइया तुभे । जं जंपह लीलाए, एवमसंबद्धवयणाई ? ॥१५५॥ किं न वियारह हियए, तवनियमफलं तिलोयजणपयडं । सिद्धंतभासियं पि हु, न चलइ बहुजुत्तिलक्खेहिं ॥१५६॥ जं पुण गुरुणा कहियं तत्तं तुम्हाण तं विसं मुत्तं । तक्करणाओ तुब्भे, निवडिस्सह भीमभवकूवे ॥ १५७॥ ता भो महाणुभावा !, कहमवि लहिऊण माणुसं जम्मं । भवसयसहस्सदुलहे, चारित्ते उज्जमं कुह ॥ १५८ ॥ जं पुण मुत्तूण वयं वंछह विसए विसोवमे मूढा ! | तं चितारयणेणं, मा गिण्हय कायमणिखंडं ॥१५९॥ एवं पयंपमाणं, सुरदत्तं जाणिऊण दढचित्तं । ते दो विसुरा जंपंति, जुज्जए सुरवइपसंसा" ॥१६०|| तो झत्ति समणरूवं, अवहरिउं दो वि हुंति पच्चक्खा । पसरंतअसमतेया, संपत्ता चंदसूर व्व ॥ १६१॥ जंपंति जयसु सावय !, जहुत्तगिहिधम्मकरणदुल्ललिय ! | छज्जइ तुह चेव जए, पसंसणं तियसपहुविहियं ॥ १६२ ॥
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