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Jain Education International 2010_02
श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
नवरं पवित्तगत्तो, जिणपूयं कुणइ तिसु वि संज्झासु । विहिपुव्वमणुट्ठाणं, पच्चक्खाणं च जह सत्तिं ॥ ९८ ॥ बीयाए पुण थूलग - पाणिवहाईणि बारस वयाणि । सव्वाइयारसुद्धाइँ, सावओ धरइ जत्तेण ॥९९॥ तइयाए सामइयं, सड्ढो गिन्हइ उभयसंज्झासु । होइ चउत्थीइ तहा, पोसहिओ चउसु पव्वेसु ॥१००॥ पंचमियाए सड्डो, एगागी पोसहं गऊण । पव्वेसु चउसु पडिमं, पडिवज्जइ सव्वराईयं ॥१०१॥ अह कामदेवगिहिणा, पडिमाओ आइमाउ चत्तारि । उव्वहियाओ सम्मं, विहीइ सिद्धंतभणियाए ॥१०२॥ सिरिवीरजिणसयासे, तस्संगीकयगिहित्थधम्मस्स । एवमइक्कंताई, चउदस संखाइँ वरिसाई " ॥ १०३ ॥ " अन्नदिणे सो पंचम - पडिमकए सव्वराइयं पडिमं । पडिवज्जिऊण रहिओ, पोसहसालाए एगागी ॥ १०४ ॥ इत्थंतरंमि सक्को, अवहीए महियलं निरिक्खंतो । पिक्खेइ कामदेवं, पडिमाइ ठियं महरिसिं व ॥ १०५ ॥ तत्तो विम्यिचित्तो, सक्को कुंभत्थलं व मत्तकरी | धूतो नियसीसं, जंपेइ सुरगणसमक्खं ॥१०६॥ चंपाइ कामदेवो, गिहत्थवयधारगो वि पडिमठिओ । देवेहिं वि झाणाओ, अचालणिज्जो सुरगिरि व्व" ॥१०७॥ " अह तत्थ को वि देवो, दुज्जण इव मच्छरी परगुणेसु । तव्वन्नणमसहंतो, ईसाइ पयंपए सकं ॥ १०८॥
जं भावइ तं किज्जइ, बुल्लिज्जइ जं मणस्स पडिहाइ । अलियं पि सच्चविज्जइ, पहुत्तणं तेण रमणीयं ॥ १०९ ॥ धाऊहिँ नद्धअंगो, एस गिहत्थो मणुस्समत्तो वि । तुम पसंसिओ जं, तं पहु ! किं को वि सद्दहइ ॥ ११०॥
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