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विजयचंदचरियं जा सो मोहविमूढो अणुकूले कुणइ तीइ उवसग्गे । ता झत्ति तीइ विमलं उप्पन्नं केवलं नाणं ॥१४१॥ देवेहिं कया महिमा खिविया कुसुमंजली वि सीसंमि । ता सो विम्हियहियओ पलोयए तीइ मुहकमलं ॥१४२।। होऊण तुमं खयरो मए समं निवसिऊण सुरलोए । जाओ पुणो वि खयरो तह वि हु नेहं न छड्डेसि ॥१४३।। तम्हा चयसु महायस यं संसारकारणं मोहं । होऊण एगचित्तो धंमंमि समुज्जमं कुणसु ॥१४४॥ इय केवलिवयणाओ सरिऊणं पुव्वजम्मसंबंधं । संवेगसमावन्नो उप्पाडइ अत्तणो केसे ॥१४५।। पभणइ चलणविलग्गो भयवइ सव्वं पयंपियं तुमए । पडिबोहिओ अ अहयं पडिउवयारो कओ तुमए ॥१४६।। इय भणिऊणं खयरो सम्म पडिवज्जिऊण जिणदिक्खं । उग्गतवखवियकम्मो संपत्तो सासयं ठाणं ।।१४७ ।। केवलिपज्जायं पालिऊण पडिबोहिऊण भव्वजणं । मयणावली वि अज्जा संपत्ता सासयं सुक्खं ॥१४८ ।।
___ सुहमइगंधपूयाकहाणयं संमत्तम् ॥ पूजाष्टके प्रथममाख्यानकं गन्धविषयं समाप्तम् ॥१॥
१. भवियजणं ।
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