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________________ रतन जरत ठान, राजत दमक भान, करत अधिक मान, अंत खाख होये हैं ।। केसुकी कली-सी देह, छनक भंगुर जेह, तीनही को नेह एह, दुःख बीज बोये है । रंभा धन धान जोर, आतम अहित भोर, करम कठन जोर, छारनमें सोये हैं ।१६ (३) ज्ञान प्राप्तिके प्रति समाजकी उदासीनता देखकर दुःख व्यक्त करते हुए उद्गार तत्कालीन समाज स्वरूपको मूर्तिमंत करते है-मुसलमानोंके राजमें जैनोंके लाखों पुस्तक जला दिए गए और जो कुछ शास्त्र बच रहे हैं, वे भंडारों में बंद कर छोड़े हैं। वे पड़े पड़े गल गये हैं, बाकी दो-तीन सौ वर्षमें गल जायेंगें। जैसे जैन लोग अन्य कामोमें लाखों रूपये खरचते हैं, तैसे जीर्ण पुस्तकोंके उद्धार करानेमें किंचित् नहीं खरचते हैं। और न कोई जैनशाला कर अपने लड़कोंको संस्कृत धर्मशास्त्र पढ़ाता है। जैनी साधुभी प्राय: विद्या नहीं पढ़ते हैं, क्योंकि उनको खानेका तो ताज़ा माल मिलता है, वे पढ़के क्या करेंगें ? और यति लोग इन्द्रियोंके भोगमें पड़े रहे हैं, सो विद्या क्यों कर पढ़ें ? विद्या के न पढ़ने से तो लोग इनको नास्तिक कहने लग गए हैं, फिर भी जैन लोगोंको लज्जा नहीं आती हैं । १७ ऐसे अनेक सजे हुए हीरे-रत्नोमें कोहीनूर की तरह शान-शौकत चमकानेवाली और दर्शकपाठक वृंदको आश्चर्यके उदधिमें डूबोनेवाली कलाकृति है-'जैन मत वृक्ष'| राष्ट्रीय, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक और कलाके परिवेशमें जिस कृतिकी कोई कल्पना भी न कर सकता था; उस अंधाधुंध अंधकार युगमें आपने अवसर्पिणीकालकी वर्तमान चौबीसीके आयंत तीर्थंकरोंका और चरम तीर्थपतिकी पट्ट परंपराका इतिहास शाखा-प्रशाखा-फूलपत्तियोंके नयनरम्य सुहावने समूहसे सुशोभित वृक्ष-रूपमें चित्रित करके अनूठे कल्पना चित्रण का पुट पेश किया है। बाल सुलभ चेष्टारूप इन्हीं चित्रों के रेखांकनने विकासपथके चरणचिह्नों पर स्वयंकी अदम्य-अगम्य-अदृश्य शक्तिको संचरित, करनेका जब प्रयत्न किया गया, तब चिरपरिचित फिरभी प्रच्छन्न सत्य और अहिंसाके मार्गकी प्राप्ति जीवनसूत्रके रूपमें हुई। रोम-रोमसे मुखरित सत्यनिष्ठाके प्रभावसे ही आप अपने समय के महान और सामर्थ्यवान युगपथदर्शक-युग प्रवर्तक-युग निर्माता बन सके। बाल वयमें-समवयस्क साथियोंमें जिस परम सत्यवादी दित्ताकी साक्षीको वृद्धभी मान्य करते थे; वही युवक आत्मारामकी युवानीमें सत्य ही साँसथी-सत्य पर ही आश थी; सत्यही आपके प्राण थे और सत्य ही आपका प्रण भी। लाखोंमें एक---यह वह समय था जब देवीदास कभी तो भावि महान चित्रकारके रूपमें नयनपथमें झलकता था तो कभी परमोकारी-जीवदया प्रतिपालकके रूपमें स्वयंके जी-जानकी परवाह न करके अन्यके जीवनको बचाता हुआ-मौत के मुँहमेंसे वाफ्स खिंचनेवाला स्वरूप दृष्टिगोचर होताथा;८ कभी प्रकृतिकी गोदमें घूमते नज़र आते या कभी नदीमें तैरते हुए। यही कारण है कि आपने सौष्ठवयुक्त, तेजस्वी, प्रतिभावंत, मांसल गात्रोमें छिपी पंजाबी व्यक्तित्वयुक्त आकर्षक देह विभूतिकी अपूर्व दैवी शोभा नैसर्गिक रूपसे ही प्राप्त की थी। 'लाखों में एक'-ऐसी तासीरवाला व्यक्तित्व वह होता है जिसका बाहृयाभ्यन्तर स्वरूप समान रूपसे चमकता हों। देवीदासकी देवतुल्य अद्भुत कांतिसे युक्त सुगठित-सुडोल-लम्बीकाया, विशाल ललाट, उज्ज्वल-तेजस्वी-सुदीर्घ नेत्रयुगल, सागर सी गंभीर मुखमुद्रा और मेरुसदृश उन्नत एवं निश्चल वक्षःस्थल, असीम वात्सल्य पूर्ण-विश्व प्रेमसे (54 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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