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वंदे श्री वीरमानन्दम्
पर्व द्वितीय श्री आत्मानन्दजी महाराजजीका जीवन तथ्य
* सद्विद्योत्रमनं सुधारितजनं धर्मकियोदुद्योतनं,
क्लृप्ताहदभवनं, सुयोजितधनं सद्ग्रन्थनिष्पादनम् । आत्माराममुनेरधर्मशमनं सद्देशनादेशनं,
लोकोद्धारघनं गुणोपनमनं, धन्यं परं जीवनम् ।। " ' शाश्वत धर्मकी परम्पराके वर्तमान अवसर्पिणीकालीन चौबीस तीर्थकरोंमें से अंतिम कर्णधार श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामीजीके अनुगामियोंकी परम्परामें तिहत्तरवे क्रम पर बिराजित चरित्रनायक युगप्रधानाचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म. सा. के (सन १८३६ से १८९६ ई.) प्रभावशाली-प्रतिभा सम्पन्न-प्रतापवंत व्यक्तित्वका परिचय अत्र करवाया जा रहा है। गुणागारका प्रास्ताविक परिचय-महापुरुषोंकी शक्ति अचिन्त्य होती है। अतीत के वे वारिसदार, वर्तमानको सुसंस्कृत करके-नये ही रूप रंगसे सजाकर, कल्याणमय-मंगलकारी-सुंदर भावि दर्शाते हैं। सार्वभौम सत्यके मूर्तिमंत स्वरूप, सत्यनिष्ठ, धीर-वीर श्री आत्मानंदजी महाराजजी के जीवनमें सत्यके प्रति पग-पग पर आकंठ श्रद्धा रस छलकता है। वे अपने गुरुजन पूज्य श्री अमरसिंहजी म. को, उनकी प्रशंसा पुष्पवृष्टि और स्नेह एवं वात्सल्यकी रेशम डोरके प्रत्युत्तरमें स्पष्ट वक्ता बनकरनम्र तथापि दृढ भावसे-कहते हैं-- "आप मेरे मन परमपूज्य और समादरणीय हैं, परन्तु क्या किया जाय ? आगमवेत्ता पूर्वाचार्योंके लेखोंके विपरीत अब मुझसे प्ररुपणा होनी अशक्य है। मैं तो वही कहूँगा जो शास्त्रविहित होगा शास्त्र विरुद्ध-मनःकल्पित आचार विचारोंके लिए अब मेरे हदयमें कोई स्थान नहीं रहा । और मेरी आपसे भी विनम्र प्रार्थना है कि आप झूठे आग्रह छोडकर तटस्थ मनोवृत्तिसे सत्यासत्यका निर्णय करनेका यत्न करें और शास्त्रीय दृष्टिसे प्रमाणित सत्यको बिना संकोच स्वीकार कर लीजिए।" २
सत्यके गवेषक-सत्यके प्ररूपक-सत्यके प्रचारक; सत्यके विचारी-आचारी-प्रचारी एवं सत्यके संगी व साथी अमर 'आत्मा' -जिनका अंतरंग सत्यसे लबालब भरा था, तो बहिरंग व्यक्तित्वके परिवेशमें सत्यके ही सूर प्रवाहित थे; सत्यकी सुरीली लय पर केवल सत्यका नर्तन था। ऐसे सत्यकी ज्वलंत ज्योतिर्मय विभूति-जैनाचार्य श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी महाराजजी के विराट् प्रकाशपुंजके एक अणुरूप-किरण-मात्र प्रकाशित करनेका आयास, आस्थायुक्त भक्तिकी शक्ति स्वरूप अनायास ही आकार ले रहा है।
आपके समयकालीन परम भक्त श्री जसवंतराय जैनीने आपके जिस स्वरूपको प्रत्यक्ष रूपमें. स्वचक्षुसे निहारा है उसे वे यथास्वरूप आलेखित करते हैं.---"श्री आत्मारामजी महाराज जैन कुलोत्पन्न न थे। वह थे एक महान योद्धा क्षत्रियके पुत्र। क्षात्रत्व था उनकी नस-नसमें। उनकी साधुवृत्ति भी क्षत्रियत्वसे खाली न थी। वह थे सद्धर्म प्रचारक, जैन शासनके युगप्रधान, जैन धर्मके प्रभावक, जैन प्रजाके ज्योतिर्धर, वादिमुखभंजक; उनमें थी कला
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