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________________ विद्यमान है। पं. कस्तुर विजयजी--- त्यागी, वैरागी, तपस्वी, ज्ञानी, प्रभावक पं. कस्तुर विजयजीका जन्म वीशा पोरवाल ज्ञातिमें वी.सं. २३०७में और २३४०में बडौदामें कालधर्म प्राप्त हो गए। पं. श्री मणिविजयजी (दादा)---गुजरातके भोयणी तीर्थके पास अघार गाँवमें विशा श्रीमाली श्रेष्ठि जीवनदास और माता गुलाबबाईके पुत्र मोतीचंदजीका जन्म वी.सं. २३२२ में हुआ। प्राथमिक व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त करके व्यापारार्थ पेटली गाँवमें बसे। कीर्तिविजयजी म.के परिचयसे वैरागी बनकर २३४७ में मारवाड़के पाली शहरमें दीक्षा ग्रहणकी और दी.सं. २३९२में पंन्यास पद प्राप्त किया। महातपस्वी, अति प्रसन्न मुखाकृति, अप्रतिबद्ध विहारी, प्रशान्त मूर्ति, विनीत, भक्ति-वैयावृत्यकारी, सेवा परायण, मिलनसार-सर्वप्रिय, गम्भीर असाधारण निःस्पृही, अकिंचन, प्रमाद परिहारी, सर्वदा जागृत ज्ञानदशा, सरल, बाल ब्रह्मचारी महात्माने ५९ वर्ष विशुद्ध चारित्राराधना करके-करवाके, ज्ञान-तपादिसे बाह्याभ्यन्तर जीवन पवित्र बनाकर, अंतमें चार आहारका त्यागकर वी.सं. २४०५ - आ शु. ८ को कालधर्म प्राप्त हुए। उनके सात शिष्य श्री अमृत विजयजी, श्री बुद्धि विजयजी, श्री प्रेमविजयजी, पं श्री गुलाब विजयजी, पं. श्री शुभविजयजी, श्री हीर विजयजी और श्री सिद्धि सुरीश्वरजी (बापजी)-सप्तर्षिकी भाँति तेजस्वी नक्षत्र थे। उन्हीं शिष्यों के हज़ारों शिष्य-शिष्याओंका विशाल परिवार सांप्रत कालमें विचरकर विविध प्रकारसे जिनशासन सेवा-प्रभावना के कार्य कर रहा है। श्री बुद्धि विजयजी (बूटेरायजी)---दृढ़ मनोबली, सत्य और स्पष्ट वक्ता, पंजाबमें सत्य-संविज्ञ मार्गके प्रथम प्रवर्तक, प्रभावक व्यक्तित्ववाले, पंजाब-राजस्थान और गुजरातमें जिनशासनकी शान चमकानेवाले, पंजाबी साधुओंमें प्रथम पंक्तिके, धर्मग्रन्थों के गहन अभ्यासी, क्रियाकांड निपुण बूटेरायजीने लुधियाना नज़दीक दुलवा गांवके शीख परिवारके टेकसिंह और माताजी कर्मोदेके घर शुभ स्वप्न सूचित वी.सं. २३३३ में जन्म धारण किया। बचपन से ही धार्मिक वाचनका लगाव था। पूर्वजन्म संचित शुभ कर्मों के कारण उनको साधु बननेके भाव जागे और माताकी आज्ञा व अंतरकी आशिष लेकर 'सच्चा साधु' बनने हेतु सच्चे और अच्छे गुरुकी तलाश करनेके लिए अनेक साधुओंसे परिचय किया। आखिरकार २३५८में स्थानकवासी साधु बने। संस्कृत और अर्धमागधीका ज्ञान सम्पादन करके शास्त्राध्ययन किया और लगातार पाँच साल तक बराबर परिशीलन किया। फल स्वरूप अंतरसे मूर्तिपूजाका विरोध नष्ट हो गया और अधिकाधिक चिंतन मननसे श्रद्धा बलवत्तरदृढ़तर होती गई। इस पाँच वर्षके परिभ्रमणसे उन्हें दो शिष्य-मूलचंदजी और वृद्धिचंदजीकी प्राप्ति हुई। उन्हें लेकर वे गुजरातकी ओर पधारें और श्री मणिविजयजी के पास संवेगी दीक्षा अहमदाबादमें २३८२में ग्रहण कीः नाम रक्खा गया-बुद्धि विजय, लेकिन, वे बूटेरायजीके नामसे ही प्रसिद्ध हुए। गुरु-शिष्य त्रिपुटीने सत्य धर्मकी मशाल प्रज्वलित की और उसके प्रचार-प्रसारके लिए कटिबद्ध बने। उन्होंने यतियों के विरुद्ध बुलंद आवाज़ उठायी और संवेगी मार्गकी विजय पताका दिग्गंतमें फहरायी। संवेगी साधुओंको सम्माननीय स्थिति अर्पित की। पश्चात् स्वदेश-पंजाब जाकर छ साल सतत (46) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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