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साल निभाया। अनेक मुनियोंके वाचना-दाता, उग्रतपस्वी, जिनकल्प विच्छेद होने पर भी आत्म विशुद्धिके लिए जिनकल्प तुल्य साधनामें गणकी निश्रामें रहकर भयंकर उपसर्गादिमें निष्प्रकंपनिराबाध-निःसारभोजी-स्मशानादिमें स्वेच्छासे साधनारत बनकर कर्मनिर्जरा की। अपनी १०० सालकी आयु पूर्ण कर मालवामें वी.सं. २४५ में स्वर्गवासी बने। आर्य सुहस्ति सूरिजी--- महान शासन प्रभावक सुहस्तिजीका जन्म वी.सं. १८१में हुआ। यक्षाजी द्वारा पालित और वैराग्यवासित बनकर वी.सं. २१५में स्थुलभद्रके शिष्य हुए। उसी वर्ष गुरुजीके स्वर्गवाससे गुरुभ्रातासे ही अध्ययन किया। आचार्यपद वी.सं. २४५में प्राप्त करके गुरुभ्राताकी निश्रामें ही संघ संचालन एवं धर्मप्रचार कार्य करने लगे। सम्राट संप्रतिको प्रतिबोधित करके सवालक्ष जिनमंदिर और सवाक्रोड जिन प्रतिमा, सातसौ दानशालायें आदि प्रभावक कार्य करवाये। संप्रतिने कर्मचारियों द्वारा अनार्यदेशमें भी मुनि विचरणका मार्ग प्रशस्त किया। भद्रामाताके पुत्र अवंतिसुकुमालको प्रतिबोधित करके दीक्षा देकर आत्म कल्याणकी ओर प्रेरित किया। ज्ञानके भंडार और धर्मधूराके समर्थ संवाहक सुहस्तिजीके बारह प्रमुख शिष्य थे। कुल ११० वर्षकी आयु पूर्ण करके वी.सं. २९१में कालधर्म प्राप्त हुए। आर्य सुस्थित और आर्य सुप्रतिबुद्ध--- कुमारगिरि पर विशिष्ट तपाराधनाकारक काकंदीमें सूरिमंत्रके ६६ एक क्रोड जाप कारक और इसीलिए कोटिक गण प्रणेता-व्याघ्रापत्य गोत्रीय सुस्थितजीका जन्म वी.सं. २४३में हुआ। दोनों सहोदर काकंदीके राजकुमार थे। वी.सं. २७४में दीक्षा लेकर संयम साधनासे आत्मविकास करते हुए एवं शास्त्रीय ज्ञानार्जन करके वी.सं २९१में आचार्य पद प्राप्त किय। खारवेलकी आगमवाचनामें ये दोनो उपस्थित थे। आपके पाँच शिष्य मुख्य थे । कुमारगिरि पर वी.सं. ३३९ में स्वर्गवासी हुए। आर्य इन्ददिन, आर्य दिन्न सुरीजी आर्य सिंहगिरि - इन तीनोंकी कोई भी विशिष्ट विगत या विशेष समय संकेत नहीं मिलता है। संभवतः चौथीके उत्तरार्ध से छठीके पूर्वार्ध तक माना जा सकता है। आर्य वज्र स्वामी --- पूर्व जन्ममें गौतम स्वामीसे प्रतिबोधित होकर इस जन्ममें माँके मोहको छुडाने के लिए रो-रोकर माताको परेशान करनेवाले वज्रका जन्म वी.सं. ४८८में हआ। राज दरबारमें पिताके रजोहरणको६८ लेकर नाचनेवाले, तीन वर्षकी आयुमें ही साध्वीजी महाराजके ग्यारह अंग पठन-पाठन सुनते सुनते ही उसे कंठस्थ करनेवाले वज्रस्वामीने वी.सं. ४९६में दीक्षा लेकर श्री भद्रगुप्तजीसे विशेष विद्याध्ययन करके दसपूर्वी ज्ञाता बने। मित्र देवने परीक्षानन्तर गगनगामिनी और वैक्रिय लब्धियाँ दी। पाटलीपुत्रकी अति श्रीमंत कन्या रुक्मिणीकी क्रोड़ोंकी सम्पत्ति ठुकराकर उसे प्रतिबोधित करके दीक्षा दी। आपकी वाचना शैलीकी उत्कृष्टता देखकर गुरुजीने आपको वाचनाचार्य पद प्रदान किया, बादमें वी.सं. ५४०में आचार्यपदारूढ हुए। भयंकर अकालमें श्री संघको एक पट्ट पर बैठाकर गगनमार्गसे सुभिक्षतावाले नगरमें ले आये वहाँ पर्युषणा पर्वमें अपनी लब्धिके बलसे पद्मद्रहकी लक्ष्मीदेवीसे सहस्त्रदल कमल और मित्र-मालीसे बीस लाख पुष्प लाकर शासन प्रभावना की एवं इससे प्रभावित बौद्ध राजाको प्रतिबोधित करके जैनधर्मी बनाया। क्षीणायु जानकर रथावर्त गिरि
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