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की गई। आपने असि-मसि-कृषि रूप जीवनयापनकी रीति-नीति, बादर अग्नि की स्वयं उत्पत्ति होने पर भोजन व्यवस्था विधि, स्त्रियोंकी चौसठ, पुरुषों की बहत्तर कला एवं सौ प्रकारके शिल्प रूप सांसारिक अनेकविध कलाओंको-शिक्षा संस्कारों को प्रकाशमान और प्रवर्तमान करके नीति सम्पन्न, सुख शांतिमय और सुचारु व्यवस्था सह त्रेसठ लाख पूर्व पर्यंत स्वस्थ राज्य संचालन किया।
जन्मसे ही मति-श्रुत-अवधि' -प्रमुख तीन ज्ञानके धारक श्री ऋषभदेव भगवंतने अपनी आयुके एक लाख पूर्व वर्ष शेष रहते हुए अवधिज्ञानसे अपने दीक्षाकालको जानकर भरतादि सौ पुत्रों एवं अनेक प्रपौत्रों को विभिन्न प्रदेशों के राज्य पर स्थापन करके नवलोकांतिक' देवोंकी 'तीर्थ प्रवर्तमान करनेकी' विनतीको लक्ष्यमें रखकर, एक वर्ष पर्यंत यथेष्ट वार्षिक दान प्रदान करते हुए गृहवास त्यागकर चैत्र कृष्णा अष्टमीको, आत्म शुद्धयार्थ विनिता नगरीके सिद्धार्थवन नामक उद्यानके अशोक वृक्षके नीचे द्रव्यसे चउमुष्टि केशलुंचन करके और भावसे सर्व कषायादि दूर करने स्वरूप भावगुंड होते हुए उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें चंद्रका योग होने पर दो निर्जल उपवास युक्त ४००० पुरुषों के साथ आत्मसंयम स्वरूप सम्यक्चारित्र महामहोत्सव पूर्वक अंगीकार किया।
तत्पश्चात् छद्मस्थावस्थामें भिक्षाविधि और भिक्षाचर से अपरिचित-अनजान लोगोंसे मुनि योग्य अन्न-जलकी भिक्षा चारसौ दिन तक न मिलनेसे चारसौ उपवास हुऐ। तदनन्तर हस्तिनापुर नगरीमें विचरण करते हुए, आपके दर्शन होते ही जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त होने पर भिक्षा-विधि आपके प्रपौत्रको ज्ञात हुई जिससे आपको निर्दोष आहारकी प्राप्ति हुई और आपने उस निर्दोष एषनीय इक्षुरससे चारसौ उपवासका पारणा किया।
इस तरह संयम धारण करने के पश्चात् अनवरत सहस्त्राब्द पर्यंत अहर्निश अप्रमत्त दशामें, निरंतर तप-ध्यान-, यम-नियम से भावित-आत्म साधन लयलीन-कर्म कलुषित निजात्माको, विशुद्ध-निष्कर्मा बनाने हेतु प्रचंड यज्ञ रूप आराधना-साधनामें तत्पर बनकर परिषह-उपसर्ग', संकट-विकट, कष्ट-कठिनाइयों को समभावसे सहते हुए और कर्मकटकको विदारते हुए फागुण कृष्णा एकादशीको पुरिमताल नगरके शकटमुख उद्यानमें न्यग्रोध नामक उत्तम वृक्षके नीचे, निर्जल तीन उपवास युक्त, उत्तराषाढा नक्षत्रमें चंद्रका योग होने पर अविनाशी अनंत केवलज्ञान-केवल दर्शनकी ज्वलंत-ज्योत-प्रकाशी, आप-पूर्णज्ञानी-सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बने।
इस हर्षोल्लासपूर्ण अवसरमें सोने में सुहागेकी तरह आपके ज्येष्ठ पुत्र भरतके साथ आपके दर्शनको, हाथी पर बैठकर आयी हुई माता---जिसने आपके विरहमें रोते रोते नेत्ररोशनी गंवा दी ऐसी असीम ममतामयी माता---आपका निर्ममत्वयुक्त अवर्णनीय वैभव-शोभा देखकर स्वयं प्रतिबोधित होती है और सांसारिक संबंधोकी अनित्यताकी भाव-धारा पर अग्रसर होते होते सर्व घातीकर्म क्षय करके अ-क्षर केवलज्ञान और केवलदर्शनको संप्राप्त करती हैं: संयोगसे उसी समय सर्व अघाती कर्मके क्षयकी भवितव्यताके कारण इस
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