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२५. ढ़ाईद्वीप-- चौदह राजलोकमें तिर्छालोकके मध्यके जंबूद्वीपकी चारों ओर एक समुद्र-एक द्वीप-इस प्रकार असंख्य
द्वीप-समुद्र हैं । उनमें प्रथमके ढाई द्वीप चित्र परिचयसे ज्ञातव्य हैं । इसे ही मनुष्यलोक भी कहते हैं । २६. तीर्थकर नामकर्म--- कर्मके आठभेदमें षष्ठम-नामकर्मके उपभेद-दस प्रत्येक प्रकृतिमें समाहित है। २७. त्रिकरण-त्रियोग-(त्रिविध-त्रिविध)- त्रियोग (मन-वचन-काया)से 'करण-करावण-अनुमोदन रूप त्रिकरण (करना,
करवाना, अनुमोदनारूप) त्रिविध त्रिविध स्वरूपसे कोई भी कार्य करना । २८. त्रिपदी-- 'उप्पनेइवा', 'विगमेइवा', 'धुवेइवा'- तीर्थंकर भ. केवलज्ञान पश्चात् प्रथम देशना (प्रवचन) देते है, जिससे
प्रतिबोधित गणधर योग्य प्रथम शिष्य द्वादशांगीकी रचना इस तीन पदाधारित करते हैं। २९. दस अच्छेरा (आश्चर्यकारी प्रसंग)-- सामान्यतया परिपाटीसे भिन्न विशिष्ट संयोगमें विशिष्ट कार्य-घटनायें
असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल बाद घटित होती है । इस अवसर्पिणि कालमें ऐसे दस प्रसंगोंको जैन इतिहासज्ञोंने आलेखन किया है- (१) तीर्थंकर (भ.महावीरजी)का नीच कुलमें अवतरण (गर्भ संक्रमण) (२) प्रथम देशना निष्फल (३) केवलज्ञान पश्चात् गोशालाका उपसर्ग (४) सूर्य-चंद्रका मूल रूपमें, मूल विमान सहित भगवंतको वंदनार्थ आना। (५) चमरेन्द्रका उत्पात (ये पाँच आश्चर्यकारी प्रसंग भ.महावीरके समयमें घटित हुए।) (६) तीर्थंकरा श्री मल्लीनाथभ.) का स्त्रीवेद सहित जन्म (७) श्री नेमिनाथ भ.के समयमें भरतक्षेत्रका वासुदेव कृष्ण और धातकीखंड़के वासुदेवके शंखनादोंका मिलन-अपरकंकामें (८) श्री शीतलनाथ भ.के समयमें युगलीकका व्यसनी बनकर नरकगमन और उनसे प्रवर्तित हरिवंश (९) भ.सुविधिनाथके पश्चात् असंयतियोंकी पूजाका प्रारम्भ (१०) पांचसौ धनुषकी अवगाहना (ऊँचाई) वाले एक समयमें (एकसाथ) १०८ का अष्टापद पर्वत पर अनशन करके मोक्ष गमन (श्री ऋषभदेव+ उनके ९९ पुत्र+
भरतके आठ पुत्र = १०८) ३०. द्वादशांगी-- "अंग' अर्थात् अर्थ रूपसे तीर्थंकर भ.द्वारा प्ररूपित विस्तृत देशनाको श्री गणधर भ.द्वारा सूत्ररूपमें गुंफित
करना अथवा तीर्थंकर द्वारा प्रदत्त त्रिपदी का विस्तार-बारह सूत्र अर्थात् द्वादश अंगोंका समूह वह द्वादशांगी-यथाआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) ज्ञाताधर्मकथा, उपासक दशा, अंतकृत दशा,
अनुत्तरोपपातिक, प्रश्न व्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवादसूत्र३१. धर्मध्यान-- शुभध्यान कहलाता है।
धर्मास्तिकायादि चार-- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय-ये चार अजीव द्रव्यकी संज्ञायें(नाम) हैं । जिनके विभिन्न गुण (स्वभाव) होते हैं यथा- धर्मास्तिकाय चलनेमें सहायक अधर्मास्तिकाय स्थिर रहनेमें सहायक, आकाशास्तिकाय अवकाश (स्थान) देता है और पुद्गलास्तिकायके सड़न-पड़न-विध्वंसन्-पारिणामिक
स्वरूपके कारण संसारकी विचित्रतायें भासित होती हैं । (इनका विशेष स्वरूप नवतत्त्वादि' जैन ग्रन्थोंसे ज्ञातव्य है। ३३. नव लोकांतिक देव- ये देव वैमानिक प्रकारके होते हैं, जिनके नव विमान पंचम् (ब्रह्म देवलोक)के पार्श्वमें स्थित
हैं । ये सभी देव एकावतारी (देव गतिमें से च्यवकर मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करनेवाले) होते हैं। श्री तीर्थंकर भ.के दीक्षा अवसरके एक वर्ष पूर्व ये देव स्वयंके आचार अनुसार कृष्णराजिके मध्य श्रीतीर्थकर भ.को तीर्थ प्रवर्तनके
लिए (अर्थात् दीक्षा लेकर कैवल्य प्राप्त करके तीर्थ स्थापना हेतु) विनती करते हैं । ३४. निकाचित-- अर्थात् स्थिर । कर्म निकाचित करना अर्थात् कर्मकी आत्माके साथ ऐसी स्थिर स्थिति, जिसे भुगतनेके
अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं । जिसकी किसी भी संयोगके सहयोगसे आत्मासे मुक्ति नहीं । ३५. निर्जरा--- निर्जरा अर्थात् झर जाना-आत्मासे कर्मका विघटन होना ३६. पंचतीर्थी प्रतिमा- ऐसी प्रतिमा विशिष्ट पूजा-अनुष्ठानोंमें उपयोगी होती है। इसमें मध्यमें मूलनायक स्वरूप एक
भगवंतकी प्रतिमा और उनकी दोनों पार्थो में उपर पद्मासन युक्त और नीचे खड़ी (काउसग्ग मुद्रा) प्रतिमायें होती हैं ।
अतः पांच भगवंतकी एक ही पीठिका पर प्रतिमायें होनेसे पंचतीर्थी कहलाती हैं। ३७. पंच परमेष्ठि--- परम इष्ट फल प्रदाता, वही परमेष्ठी-ये पांच हैं- अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु । ३८.
पंच महाव्रत- जैन साधु (सर्व विरतिधर)को ये व्रत पालन करनेका विधान श्री अरिहंत भ.द्वारा होता है। अन्य तीर्थंकरोंके द्वारा चार व्रत और भ.महावीर द्वारा पांच व्रतका आदेश हुआ है- सर्वथा प्राणातिपात विरमण, सर्वथा मृषावाद विरमण, सर्वथा अदत्तादान विरमण, सर्वथा मैथुन विरमण, सर्वथा परिग्रह विरमण |
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