________________
१
परिशिष्ट - १
...: जैन धर्मके पारिभाषिक शब्द :--- अठारह दोष--- “अन्तरायदान लाभवीर्य भोगोपभोगाः | हासो रत्यारतिभीतिर्जुगुप्सा शोक एवच ।। (कामोमिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा) चाविरतिस्तथा । रागोद्वेषश्चनो दोषास्तेषामष्टा-दशाप्यमी ।।" (अभिधान चिंतामणी का-१ श्लो.७२-७३) इन अठारह दोषोंके संपूर्ण क्षय होने पर ही सर्वज्ञता प्राप्त होती है । अनशन--- सर्वथा सर्व प्रकारके आहार-पानीका त्याग अशाता वेदनीयकर्म--- जिस कर्मके उदयसे जीवको दुःखका अनुभव होता है। अष्ट प्रवचन माता--- पांच समिति (इर्या, भाषा, एषणा, आदान भंड-मत्त-निक्षेपणा, पारिष्ठापनिका) और तीन गुप्ति (मन-वचन-काया)- इन आठका पालन करना जैन साधुके लिए अनिवार्य है । जैसे माता बालककी पुष्टि करती है वैसे. ही ये आठ साधुके आत्माकी पुष्टिमें सहायक होनेसे उन्हें माताके रूपमें स्वीकारा गया है। अष्ट प्रातिहार्य + चार मूलातिशय = अरिहंतके बारह गुण--- “प्रतिहारा इन्द्र वचनानुसारिणो दैवास्तैः कृतानि प्रातिहार्यानि”- इन्द्रके आदेशका अनुसरण करनेवाले देव 'प्रतिहार'-- उनका भक्तिरूप कृत्य-विशेष, प्रातिहार्य कहा जाता है: अथवा अरिहंतके निरंतर सहचारी होनेसे प्रातिहार्य- “र्किकिल्लि, कुसुमवृट्ठि, देवष्भुणि, चामरासणाई च । भावलय भेरिं छतं जयति जिणपाड़ि हेराइं ।। "(अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, भद्रासन, भामंडल, देव-दुंदुभिनाद, तीन छत्र,- आठ, मूलातिशय-अपायापगम, ज्ञानातिशय, वचनातिशय, पूजातिशय चार-ये बाहर गुण आर्यक्षेत्र-- जिस क्षेत्रमें धर्माराधना और आत्माके सर्व कर्मक्षयकी साधनाके साधन प्राप्य हो सकते हैं । जीव मोक्ष प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करके मोक्षकी उपलब्धि कर सकता है । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय--- सर्व जीवोंको इन पांच भेदोंमें विभक्त किये हैं- एकेन्द्रिय पांच प्रकारके (पृथ्वी-अप्तेउ-वायु- वनस्पति)- केवल स्पर्शेन्द्रियवाले होते हैं । द्वीन्द्रियको चमड़ी और जिव्हा-दो इन्द्रियः तेइन्द्रियकोउनसे नाक (इन्द्रिय) अधिक; चौरिन्द्रियको आंख (इन्द्रिय) अधिकः (इन तीनोंको विकलेन्द्रिय भी कहते हैं ।) पांचों इन्द्रिय वाले चारों गतिके जीवकल्पवृक्ष-- श्री रत्नशेखर सूरि कृत 'लघुक्षेत्र समास' प्रकरणाधारित (श्लोक-९६-९७) दस होते हैं । जो युगलिक मनुष्योंकी सर्व इच्छा-पूर्ति करते हैं । ये देवाधिष्ठित होते हैं ।(१) मत्तंग (मद्यंग)-मीठा पेय दाताः (२) भृत्तांग-पात्र-बर्तनादि दाता (३) तंतु-पट-वायु-तीन प्रकारके वाजिंत्र युक्त बत्तीस प्रकारके नाटक दिखलानेवाले (४) दीप-शिखा और (4) ज्योतिरंग-दोनों प्रकाश दाताः (६) चित्रांग-पंचवर्णी सर्व प्रकारके पुष्पदाता (७) चित्ररस-विभिन्न षड्रस युक्त इष्टान-मिष्टान्न दाता (८) मण्यंग-इछित अलंकार दाता (९) गेहाकार-गांधर्व नगर जैसे सुंदर गृह दाता (१०) अनग्न-अभिप्सित आसन शय्यादि दाता-इनका अस्तित्व अवसर्पिणीके प्रथम तीन और उत्सर्पिणीके अंतिम तीन आरेमें होता है। कार्योत्सर्ग- कर्मनिर्जरा-आत्मा या परमात्मा स्वरूप चिंतनादिके लिए व्यक्तिकी स्थिर मुद्रा | कालचक्र--- अनादि-अनंत संसारको समझने-समझानेका माध्यमः अनागतको वर्तमान और वर्तमानको अतीत बनानेके स्वभाववाला जो काल-जिसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म (जिसको सर्वज्ञ भगवंत भी केवल ज्ञान दृष्टिमें अविभाज्य रूपमें देखते हैं) एकम 'समय' है । असंख्य समय = १ आवलिका; १६७७७२१६ आवलिका = १ अंतर्मुहूंत; ३० अंतर्मुईत = १ दिन, ३६५ दिन = १ वर्ष, ८४ लाख वर्ष = १ पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग = १ पूर्व, असंख्य वर्ष १ पल्योपम, १० कोडाकोडी पल्योपम = १ सागरोपम, १० कोडाकोडी सागरोपम = १ उत्सर्पिणी अथवा १ अवसर्पिणी काल-वे दोनों मिलकर १ कालचक्र (इस कालचक्रके १२ आरोंका स्वरूप चित्रमें देखें | पल्योपम और सागरोपमका विशेष स्वरूप बृहत् संग्रहणी, चंद्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करंडकादि जैन शास्त्रोंसे ज्ञातव्य है।) कालधर्म-जीवकी मृत्यु-एक जन्मसे दूसरे जन्मकी प्राप्ति (विशेष रूपमें साधु-साध्वीके मृत्युके लिए इसका प्रयोग किया जाता है।)
१०
(1D
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org