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________________ निंदा-जो कोई भी दयावानके लिए कर्तव्य बन जाता है; और अन्य आत्म कल्याणकारी वैदिक प्ररूपणाओंका स्वीकार किया है। कृष्ण-नरकगमनके विषयमें जैनशास्त्रानुसार सार्ध छियासी हजार वर्ष पूर्व हुए कृष्ण वासुदेव-श्री नेमिनाथ भगवंतके चचेरे भाइ-का नरकगमन प्ररूपित किया है-नहीं कि हिंदू मान्य पांच हजार वर्ष पूर्व हुए कृष्णका। अगर हिंदू भी उन्हीं कृष्णको मानते हैं तो “कृतकर्म अवश्य भोक्तव्यं” अर्थात् राज्य संचालनमें अनेक आरम्भ-समारम्भ कामक्रिडायें, युद्धादि द्वारा उपार्जित कर्म भुगतनेके लिए नरकगमन हों-उसमें आश्चर्य या खेद क्यों? जैनोंने कृष्णजीको अपने अनागत चौबीसीके 'अमम' नामक तीर्थंकरके स्वरूप माने हैं, फिर भी उनके कर्मानुसार नरकगमन रूप सच्चाई, जैसी जिंदादिलीसे स्वीकार्य कीया है, वैसे ही उनको भी स्वीकारना चाहिए; क्योंकि, “सब्वे जीवा कम्मवश, चौदह राज भमंत”- यह अटल और अद्भूत जैन सिद्धान्त सनातन सत्यरूप है। यहाँ ग्रन्थकारने अपनी मध्यस्थताका परिचय देते हुए लिखा है, कि, “चाहो कोई पुरुषस्त्री किसीभी जातिवाला क्यों न हों, जो ईच्छा निरोध पूर्वक शील पाले सो पुरुष श्रेष्ठगिना जाता है, ऐसे ऐसे लोक बहुत मतोंमें, और बहुत जातियोंमें अबभी मिल सकते हैं।” इसके साथ ही साथ 'नार्हतः परमो देव' तीर्थकर समो देव नहीं और "श्री नमस्कार महामंत्रके प्रथम पांच पदके बिना अन्य कोई देव-गुरु उपास्य नहीं हैं।” इसे सिद्ध करके उनके गुणोंका जिक्र किया गया है। तत्पश्चात् ईसा मसीह के जीवन चरित्रके प्रसंगोंका उल्लेख करके उनके देवत्वका भी इन्कार किया है-यथा-गुलरसे फलयाचना-दीनपना), बेगुनाह गुलरको शाप देना-(कषायीपना), भूतोंका सूअरों के देहोमें प्रवेश करवाकर सूअरों को समुद्र में डूबा देना-(निर्दयता), ईसुका कुमारी मरीयमसे जन्म, ईसुका भक्तों के लिए फांसी पर लटकना-(ईश्वरत्वका हास), अंत समय 'एली एली'कहकर चिल्लाना-(शोक, भय, अरति), ईसुकी घोषणा-“हरएक मनुष्यको कर्मानुसार फल दिया जायेगा"- ईसाइयों की 'ईश्वरकी प्रार्थनासे पापक्षम्य' होनेकी कल्पनाका निरसन आदिका वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त ईसाइ धर्मशास्त्रोमें सृष्टि सर्जनके साथ पुनर्जन्मका इन्कार एवं 'ईश्वरका सर्वको सुखी करने के लिए जन्म देने को माननेवालोंका भी प्रत्यक्ष व्यवहारमें दुःखी होनेका अनुभव और प्रलय वर्णन-धूर्त सर्प याने शेतान, आदम-हव्वा आदिके प्रपंच-उन दोनों को मिथ्या मार्गदर्शन रूप ईश्वराज्ञा और उन दोनों द्वारा उसकी की गई अवहेलनाके फल स्वरूप ईश्वर द्वारा शाप देना-लूतकी बेटियों का मद्यपान और पिताके साथ कुकर्मसे गर्भधारण, वैसे ही सरका परमेश्वरसे गर्भित होना-ईश्वर पुत्र और आदमकी पुत्रियों का सम्बन्ध-आदमीको उत्पन्न करने के लिए ईश्वरका पश्चात्ताप-प्रलय पूर्व एक ही नावमें सर्व प्रकारके प्राणी-पशु-पक्षी आदिके बीज रूप नर-मादा और उनके पोषणकी सामग्रीको भरनेका नूहको दिया गया ईश्वर का उपहासजनक आदेश-ईश्वरका कभी शाप देना और कभी उसके लिए पछताना, कभी सबको मार डालना-मरी फैलाना-गाँव उलट देना और कभी किसीको न मारने का निश्चय करनाआदि अनेक असमंजस मानस कल्पनायें प्ररूपित की है। “प्रत्येक जीता-चलता जंतु तुम्हारे भोजन (190) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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