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________________ रचना, परवर्ती अनेक आचार्योंकी अनेक शास्त्र रचनाओंकी विपरित-उत्सूत्र-प्ररूपणाओंका निर्देशन कराते हए; सम्यक्त्व-प्राप्ति विषयक विचार और तीर्थंकरों के शासनमें चतुर्विध संघ प्रमाण होनेसे, दिगम्बरोंका श्रावक-श्राविका रूप दुविध संघसे जिनाज्ञा भंग और मिथ्यात्व प्ररूपणाका जिक्र किया गया है। तदनन्तर सामान्य प्रश्नोत्तर द्वारा धर्म स्वरूपकी प्ररूपणान्तर्गत अरिहंत परमात्माकी विविध प्रकारसे पूजा, बीस पंथी-तेरापंथीकी 'पुष्प-पूजामें हिंसा की मान्यताका खंडन, पूजाके पांच फल, जिनमंदिर एवं प्रतिमा निर्माणके फल, चार प्रकारसे पूजाविधि, उपकरण एवं उपधिकी चर्चा, 'बोधपाहूड वृत्ति' अनुसार 'जिनमुद्रा-वर्णन'की अयोग्यता औ अतिथि संविभागके चार भेद, बकुश निग्रंथके भेद; "तीर्थंकर केवलीका शरीर पुद्गलोंका” होनेके कथनकी 'काय-बोध-पाहुड' आधारित असिद्धि, और 'स्त्री मुक्ति' की "त्रैलोक्य सार" ग्रन्थ द्वारा सिद्धि; "नग्न दिगम्बर मुनि-चिह्न" बिना मुक्तिके इन्कारको ब्रह्म देवकृत 'समयपाहुड'की वृत्ति आधारित असिद्धि की है। अंतमें सर ए. कनिंगहामके "Archieological Report" के तेरहवें वोल्युमसे 'मथुरा शिलालेखोंकी आधार भूत नकलों के उद्धरणसे जैनधर्मकी प्राचीनता और सत्यता एवं दिगम्बर मतकी परवर्तीताको सिद्ध करते हुए इस स्तम्भको परिपूर्ण किया गया है। चतस्त्रिंशति स्तम्भः-अर्वाचीन शिक्षितोंकी शंकाओंका समाधान--(१)अवसर्पिणी काल प्रभावके कारण सांप्रत जीवोंके आयु-अवगाहना आदिके कारण श्री ऋषभदेव भगवानकी पांचसी धनुषकी काया और ८४ लक्ष पूर्वका आयु अशक्य-सा प्रतीत होता है-ऐसी प्ररूपणाओंके लिए जो तार्किक प्रमाण पेश किये हैं वह इस प्रकार है-२४ किलोग्राम गेहुं समा सके ऐसी मनुष्यकी खोपड़ी और दो तोला वजनके दांत वाले राक्षसी कदके मनुष्यका हाड ई.स. १८५० में मारुआं नज़दीककी जमीनसे निकलना; इसके अतिरिक्त तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओंके लेख, भूस्तर शास्त्रीय संशोधन, हिन्दू-ईसाइ आदिके धर्मग्रन्थादिके प्रमाणोंके साथ वर्तमानमें भी अन्यान्य देशोंके मनुष्योंकी आयु-अवगाहनादिकी प्रत्यक्ष न्यूनाधिकतादि अनेक बेमिसाल तकॊसे उपरोक्त प्ररूपणा सिद्ध की है। (२) जैन मतानुसार “पृथ्वी स्थिर और सूर्य-चंद्रादि भ्रमणशील"-इसेभी अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध किया है (अद्यतन विज्ञान भी इस तथ्यके सत्यासत्यके परीक्षणके लिए उद्यमशील है, लेकिन अब तक उनको उत्तर-दक्षिण ध्रुवोंका ही पता नहीं और न वे उनमें से किसीका उल्लंघन भी कर सके हैं। चंद्र पर पहुँचनेके और अन्य ग्रहोंके विषयमें भी जो तथ्य प्रकाशित हुए और हो रहे हैं, उन्हें भी जैन मुनियों द्वारा वर्तमानमें ललकारा गया है, लेकिन अद्यावधि उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं। वर्तमानमें पाश्चात्य देशोमें भी उनकी कपोलकल्पितता और मिथ्याजाल-प्रपंचोंका पर्दाफाश हो चूका है। हिन्दू शास्त्रों के आधार पर भी सूर्यकी भ्रमणशीलता सिद्ध की गई है। (३) भरतखंड़का स्वरूप, आर्य-अनार्य देशोंके नाम, और उनका भौगोलिक स्वरूप-की सिद्धिके लिए ई.१८९२की नवम् ऑरिएन्टल काँग्रेसमें मॅक्समूलर, डॉ.बुल्हर आदिके प्रस्तुत हुए निबन्धादिके प्रमाण पेश किये हैं। अंतमें नव प्रकारके आर्यों के लक्षण-गुणादिके स्वरूप वर्णन (176 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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