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________________ सर्वज्ञके रचे हुए यह वेद पुस्तक है कि नहीं इस बातके सच्चे निर्णय करने के लिए हमने इतना परिश्रम उठाया है।" इस कथनसे आचार्य प्रवरश्रीकी सत्यप्रियता और सत्यके प्रति उत्कंठा का उद्घाटन स्वयं हो जाता है। “षडंग-वेद आदि सर्व आज्ञा-सिद्ध शास्त्रों का युक्ति-प्रमाणसे खंडनके निषेध" को “निर्मल सोनेको कसौटीका क्या डर?." कहते हुए ललकारा है। तत्पश्चात् मूलागममें गृहस्थके संस्कार वर्णनके अभावसे जैनशास्त्रों की अमान्यताको मुंहतोड़ जवाब देते हुए स्पष्ट किया है कि, मूलागममें केवल मोक्षमार्गका ही कथन होता है। फिरभी तीर्थंकरादिके चरितानुवाद रूप गर्भाधानसे प्राणत्याग पर्यंतके कुछ संस्कारों का व्यवहार कथन भी मिलता है। वैसे तो सर्व संस्कारों का एक ही वेदमें भी वर्णन कहीं नहीं मिलता है। इन सर्व-सोलह संस्कारों की प्ररूपणा परवर्ती स्तम्भों में करने की भावनाके साथ यह स्तम्भ समाप्त किया गया है। त्रयोदश स्तम्भः--आगम सूचित, परंपरित जैन मतानुसार सोलह संस्करों का वर्णन-श्री वर्धमान सुरीश्वरजीम. कृत 'आचार दिनकर' ग्रन्थाधारित--जीइस ग्रन्थमें कुल उन्नीस स्तम्भों में समाविष्टि हैं -- किया गया है। प्रारम्भिक-श्री अरिहंत परमात्माकी देह भी गर्भाधानादि संस्कारोंसे वासित थीं। अतएव लोकोत्तर पुरुषों द्वारा आचीर्ण होनेसे गर्भाधानादि आचार, सम्यक्त्व, देशविरति-सर्वविरति और अंतमें निवार्ण होने पर अंत्येष्टि-आदि आचार प्रमाणभूत हैं। सर्व आचारोंमें मूल समान ज्ञान; शाखा और स्कंध सदृश दर्शन और फल रूप चारित्र है, जिसका रस मोक्षप्राप्ति है। ऐसे सिद्धान्त महोदधिके कल्लोल रूप चारित्रका व्याख्यान दुष्कर होने पर भी श्रुत केवली प्रणीत शास्त्रार्थ अवलम्बनसे किंचित् आचरणीय आचारोंका वक्तव्य प्रस्तुत किया है। तदनुसार आचार दो प्रकारसे-साध्वाचार और गृहस्थाचार; जिसमें साधुधर्म -जितना विषम या दुष्कर उतना ही मोक्षके समीप और गृहस्थ धर्म सरल-सुखशील-उपचीयमान आत्माको परंपरित मोक्षप्राप्तिका हेतु है। यहाँ इन दोनों आचारों की तुलना करते हुए साधु धर्मकी महानता और श्रेष्ठता दर्शायी है। व्यवहारकी प्रमाणिकता आगम और लौकिक प्रमाणसे सिद्ध करते हुए प्रथम सामान्य व्यवहार और बाद में धर्म व्यवहारके पोषक गृहस्थ धर्म, जिसका पालन तीर्थंकरोंने भी किया है-उसका वर्णन किया है। सोलह संस्कार नाम-गर्भाधान, पुंसवन, जन्म, चंद्र-सूर्यदर्शन, क्षीरासन, षष्ठी, शुचिकर्म, नामकरण, अन्न-प्राशन, कर्णवेध, मुंडन, उपनयन, पाठारम्भ, विवाह, व्रतारोप, और अंतिम (आराधना) कर्म। इनमेंसे व्रतारोपण साधुके पास और शेष संस्कार अर्हन् मंत्रोपनीत-परमाहत् मश्रावक) ब्राह्मण अथवा गर्वाज्ञा प्राप्त किसी क्षल्लक श्रावकके पास करवाना चाहिए (यहाँ संस्कार विधिकारक श्रावककी योग्यता और आचरणका वर्णन किया है।) गर्भाधान संस्कार--गर्भवतीके पतिकी आज्ञा लेकर यथायोग्य समय पति द्वारा स्नात्र-अष्ट प्रकारकी द्रव्यपूजा और भावपूजा करवाके स्नात्रजलसे सधवा माताओं द्वारा गर्भवतीका अभिषेक, शांतीदेवीके मंत्रगर्भित स्तोत्रसे सातवार मंत्रित जलसे स्नान, मंत्रपूर्वक वस्त्रांचलका ग्रन्थि (170 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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