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उनके साहित्य पर्यालोचनके इस महत्वपूर्ण कार्यको उनकी ही बदौलत परिपूर्णता प्राप्त हुई ।
कृतित्व परिवेश :--- साम्प्रतकालमें विशेषतः शिक्षित, बौद्धिक, गंभीरताशून्य, सतही विचारधाराधारक वर्गमें जैन दर्शनके सिद्धान्त-उत्तमोत्तम तत्त्वत्रयी और सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रयी. स्वरूप-जैनधर्मके क्रियानुष्ठानजिनभक्ति-दर्शन-पूजा, श्रावक-साधुचर्यादि-जैन समाजके इतिवृत्त-आर्हत् धर्मकी शाश्वतता/प्रारम्भ-प्रचलन; संसारकी अविच्छित्त/सृष्टि सर्जन; अतीत-अनागत-वर्तमान तीर्थंकरोंका स्वरूप-जैन साधु-साध्वी या संत महापुरुषों एवं सती नारियोंकी उत्तम जीवन गाथायें-जैन आचार, विचार, विधियाँ-(अंधेर नगरीके गंडू राजा सदृश) सर्वधर्म एक समानताकी मान्यता, धर्म-कर्मबंध-निर्जरा, पाप-पुण्य, संसार-सिद्धत्व-प्राप्ति आदि अनेकानेक विषयक भ्रामक खयालात, गलत फहमियाँ और आधुनिक फैशन परस्तीको अपनी प्रवाहित जिंदगानीमें देखते-सुनते और अनुभव करते हुए अंतरमें एक कसक उठती थी, उन महानुभावोंके अज्ञानसे हृदयमें उनके प्रति एक करुणाकी लहर फैल जाती थी, अतः इन सभीके स्पष्ट, स्वस्थ, सत्य-यथास्थित स्वरूपको उद्घाटित करके सद्धर्म अंगीकरणके इच्छुक अधिकारी और धर्मतत्व जिज्ञासुओंको सद्बोध प्रदान हेतु मन मचल रहा था ।
इन अभिलाषाओंको साकार करनेका अवसर, मानव जन्मके उच्चतम लक्ष्य संपादन हेतु योगाधिकारी योद्धा बनकर शास्त्र प्राविण्य शस्त्र द्वारा, समाज समरांगणमें कर्म-शत्रु विजेता और धार्मिक हार्दकी विजय वैजयन्ती फहरानेवाले शुभात्मा, जिन शासन रक्षक, आर्हत् शासन शृंगार आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.की स्वर्गारोहण शताब्दी समारोह निमित्त इस शोध-प्रबन्धने प्रदान किया । इन सर्वका शब्द देह रूप अवतरण करना, हाथमें धरतीको धारण करने या केवल निज बाहुबलसे ही स्वयंभू-रमण समुद्र तैरने सदृश अत्यधिक दुष्कर कार्य है, क्योंकि महापुरुषके अभिमतसे सद्भूत गुण वर्णनमें कभी भी किसी व्यक्ति द्वारा अतिशयोक्ति हो ही नहीं सकती है, सर्वदा अल्पोक्ति ही प्रदर्शित हो सकती है-अथवा अगाध-अनंत ज्ञान राशिको वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा भी देह (वचन) योग और आयु मर्यादाके कारण पूर्णरूपेण उद्घाटित करनेके लिए असहाय है, जैसे गागरसे सागर-सलीलका प्रमाण निश्चित करना असम्भव-सा है । अतः यहाँ बालचेष्टा रूप उन सर्वकी एक सामान्य झलक ही आचार्य प्रवरश्रीके साहित्यके पर्यालोचन रूप और उनके ही साहित्यके सहयोगसे दर्शित करवायी जा सकी है।
मेरे नम्र मंतव्यानुसार किसी भी विवेच्य विषय वस्तुके संबंधमें तविषयक निष्णातका मंतव्य सर्वोपरिश्रेष्ठतम और अंतिम, ग्राह्य योग्य माना जा सकता है: ठीक उसी प्रकार धर्म विषयक किसी भी विवेचनाका निर्णायक ग्राह्यत्त उस धर्मके तटस्थ-निष्पक्ष धर्माधिकारीके गवेषणापूर्ण सत्यासत्य और तथ्यातथ्य निरूपणमें ही समाहित होता है; जो हमें रोचक-सार्थक एवं ज्ञानगम्य विचार-वाणी-वर्तनकी संतुलन जीवनधाराके स्वामी, भव्य जीवोंके प्रतिबोधक श्री आत्मानंदजी म.के तत्कालीन एवं वर्तमानकालीन अनेक उलझी गुत्थियोंको सुलझानेवाले अनूठे परामर्श-युक्त विशद वाङ्मयसे संप्राप्त होता है । अतः गुरुदेव श्रीमद्विजय इन्द्रदिन सुरीश्वरजी म.सा.की प्रेरणा झेलकर श्री आत्मानंदजी म.के साहित्यके आकलनके साथ ही साथ अपने अंतरकी आरजूको इस शोध प्रबन्धमें प्रतिपादित करनेका अवसर उपलब्ध होनेसे मुझे धन्यताका अनुभव हो रहा है । शोध प्रबन्धका प्रारूप :- इस शोध प्रबन्धको अखंड अंक-नव-पर्वोमें संकलित करनेका आयास किया गया है, जिसका अभिप्रेत भी अक्षुण्ण और उज्ज्वल कीर्तिकलेवरधारी, वीर-शासनके अभिन्न अंग आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.के व्यक्तित्व एवं कृतित्वके अनुसंधानके माध्यमसे जैनधर्मके विभिन्न अंगोंको प्रदर्शित करके सुरीश्वरजीके उत्कृष्ट योगदान रूप उनके उपकारोंका स्मरण करते-करवाते आपके ऋण से उऋण होनेका क्षुल्लक प्रयत्न मात्र किया है ।
___प्रथम पर्वमें जैनधर्मकी परिभाषा, जैनधर्मकी गुणलक्षित विविध पर्यायवाची संज्ञायें और आगमादिके प्रमाणादिसे उनकी सार्थकता एवं पुष्टि-साम्प्रतकालीन शंका-कुशंकायें या भ्रान्ति-विभ्रान्तियोंका नीरसन और सात्त्विक सत्य सिद्धान्तोंका प्रणयन-अनादिकालीन अनंत चौबीसीयोंको निर्दिष्ट करते हुए वर्तमान चौबीसीके तीर्थंकरोंके संक्षिप्त
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