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सम्यक्त्वीको १४८ की सत्ता होती है। (५) देश विरति गुणस्थानक---सम्यग् दृष्टि जीव जब चारित्र मोहनीयके प्रथम तीन चतुष्कके अनुदयमें जधन्य-मध्यम-या उत्कृष्ट देशविरति श्रावक धर्म अंगीकार करता है और शनैः शनैः विरति परिणामके वृद्धिगत होनेसे कषाय मंदताकी भी वृद्धि होते होते मध्यम प्रकारका धर्मध्यान भी कर सकता है। यहाँ जीवको ६७ कर्म प्रकृतिका बंध, ८७का उदय, एवं १३८की सत्ता होती है। यह गुणस्थानक तद्भवआयु पर्यंत सिमित रहता है। (६) प्रमत्त संयत---इस गुणस्थानकवर्ती पंचमहाव्रतधारी सर्वविरतिधर साधु होते हैं, जो कारणवश प्रमत्त बनने के कारण सावद्य-पापमय प्रवृत्तिके सम्भवसे आर्त-रौद्रध्यानी और आज्ञा-अपायादि सालंबन ध्यानकी गौणतायुक्त होते हैं। वकभी परम संवेगारूढ मनोजनित समाधिरूप-निर्विकल्प ध्यानांशका परमानंद रूप अप्रमत्तता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन निरालंबन ध्यान नहीं। वे षट् कर्म-षडावश्यकादि व्यवहार क्रिया करके आत्मिक परिणाम शुद्धि-दिनरात्रीगत दूषण शुद्धि करते हुए अप्रमत्त गुणस्थानक प्राप्ति योग्य सामर्थ्य प्राप्त कर सकते हैं। इस गुणस्थानक स्थित जीवको ६३ का बंध, ८१ का उदय और १३८ की सत्ता होती है। (७) अप्रमत्त गुणस्थानक--पंचमहाव्रतधारी, पंचप्रमाद युक्त १८००० शीलांगयुक्त, ज्ञानी-ध्यानी-मौनी, दर्शन सप्तकके क्षपी और शेषके क्षपण या उपशमन करने में उद्यत, निरालंबन ध्यानके प्रवेशकर्ता, मैत्र्यादि चार या पिंडस्थादि चार ध्यान लीन, क्वचित् रूपातीत ध्यानकी उत्कृष्टतामें शुक्लध्यानके अंश प्राप्त करते हैं। इस स्थानकवर्ती जीवको व्यवहार क्रिया रूप षडावश्यकके अभावमें भी आत्मिक गुणरूप निश्चय सामायिक होती ही है। अतः अष्टकर्मरज अपहृत कर्ता तपसंयमसे निग्रह और उपशमसे परम शुद्धि प्राप्त स्वभावरूप आत्मा, संकल्प-विकल्पको विलीन करके मोहनीयके अंधकारका नाशक-त्रिभवन प्रकाशक ज्ञान-दीप प्रगट करती है। यहाँ जीवको (देवाय बिना ५८-५९ कर्मप्रकृतिका बंध, ७६ का उदय और १३८ की सत्ता होती है। इसकी स्थिति एक अंतर्मुहूर्त है, तदनन्तर जीव छठे या आठवें गुणस्थानक पर चला जाता है। (आठसे बारह-पांच गुणस्थानकस्थ जीवकी स्थिरता -स्थिति एक अंतर्मुहूर्त प्रमाण होती है, तदनन्तर गुणस्थानक परिवर्तीत हो जाता है)। (८) अपूर्वकरण-चार संज्वलन कषाय और छ नोकषायों के मंद होने से परमाह्लाद रूप अपूर्व पारिणामिक आत्मगुण प्राप्त होता है। क्षपक या उपशम श्रेणिके प्रारम्भक इस गुणस्थानकवर्ती जीव २६ कर्म प्रकृतिका बंध, ७२ का उदय और १३८ की सत्ता प्राप्त करता है। (९) अनिर्वृत्ति बादर--संकल्प-विकल्परहित निश्चल-परमात्माके साथ एकत्वरूप प्रधान परिणित रूप भावोंकी निवृत्ति न होनेसे और बादर अप्रत्याख्यानीय आदि बारह कषाय-नवनोकषाय का क्षपक या उपशमक होनेसे इसका नाम अनिवृत्ति-बादर-कषाय गुणस्थानक माना जाता है। यहाँ जीवको २२ कर्म प्रकृतिका बंध, ६६का उदय और १०३की सत्ता होती है। (१०) सूक्ष्म संपराय और (११) उपशांत मोह---दसवें गुणस्थानक पर सूक्ष्म परमात्म तत्त्वके भावना बलसे मोहनीय कर्मकी २७ प्रकृतियोंका क्षय या उपशम, और एकमात्र सूक्ष्म लोभका अस्तित्व
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