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शास्त्रीय उद्धरणों को लेकर) जीवाश्रयी भेद, आयुष्य, अवगाहना, गुण स्थानक, आदि अनेक द्वारोंसे अनेक संलग्न विषयोंका उद्घाटन किया गया है। जीवही सर्व तत्त्वोंका आवरक है। जीवतत्त्वके कारण ही, अजीवादि आठों तत्त्वों के परिचय प्राप्तिका अवसर उपलब्ध होता है। इस प्रकरणमें जीवके भेदादिका निरूपण किया है उसे संक्षिप्त रूपमें निवेदित करते हैं। जीवके भेद---चार गति आश्रयी जीवके ५६३ भेद बताये हैं- नारकीके - १४ (पर्याप्ता-७+ अपर्याप्ता-७); तिर्यंच-४८ (एकेन्द्रिय---२२+विकलेन्द्रिय-६+तिर्यंच पंचेन्द्रिय-२०); मनुष्य-३०३ (ढाईद्वीपके सर्वक्षेत्रोंके-१०१ प्रकारके १०१ गर्भज पर्या.+१०१ गर्भज अपर्या.-+१०१ सम्मूछिम); देव-१९८ (भुवनपति-व्यंतर-ज्योतिष्क-वैमानिक-कुल-९९ पर्या..+९९ अपर्या.) संख्या---प्रत्येक दंडकके कितने जीव? (वनस्पतिकाय-अनंत, मनुष्यके असंख्यात अथवा संख्यात और अन्य जीव असंख्यात) इसका निरूपण किया है। जीवोंकी गति-आगति, वृद्धि-हानि-अवस्थिति, अवगाहना, स्थिति (आयुकाल), चार कषाय स्वरूप; योग-१५---(मनयोग-४, वचनयोग-४, काययोग-७); क्रिया-सावद्य क्रियासे कर्मबंधका स्वरूप, लेश्या-(जीवके परिणाम)-लेश्याओंके वर्ण-गंधादि द्वारोंसे छ लेश्याओंका निरूपण; स्थान-जीवके स्वस्थान, उपपात-समुद्घात आदिके स्थान-समुद्घातके सात प्रकार, अधिकारी जीवोंकी जघन्यउत्कृष्ट स्थिति; संज्ञा--आचारांगाधारित सोलह संज्ञा एवं आहारादि चार संज्ञा; सांतर-निरंतरएक समयमें किस गतिमें कितने जीवों की एक साथ उत्पत्ति; शरीर-पांच प्रकारके -उसके स्वामी, संस्थान, अवगाहना, पुद्गल चयन, परस्पर संयोगादि; योनि-८४लक्ष जीव-योनिमें से किस गतिमें किन जीवोंकी कितनी योनियाँ हैं-इसकी विवेचना एवं संवृत्त-विवृत्त आदि योनियों के बारह भेद; संघयण-छ प्रकार के संघयणका स्वरूपोल्लेख-स्वामी और संघयण रहित जीवोंका वर्णन; संस्थान-छ प्रकारके संस्थानों का स्वरूप-रचना-स्वामी; उत्पत्ति---विभिन्न करणीके कर्ता जीवकी उत्पत्ति; आहार-अनाहार--जीव कहाँ-कब आहारी या अनाहारी होते हैं। जीवका सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, मिश्र या औधिक पना, आदिका परिचय देते हुए ज्ञानका वर्णन किया हैं। ज्ञानद्वार--जीवमें ज्ञानाज्ञानकी स्थितिकी संभावना, पांचज्ञानके भेदोपभेद (मतिज्ञानके कुल-२८ अथवा ३३६ उपभेद और नव द्वारसे विवरण; श्रुतज्ञानके चौदहभेद, अवधारणके आठ और शास्त्र श्रवण विधिके सात प्रकार; अवधिज्ञानके सामान्यतः छभेद और असंख्य या अनंत भेद भी होते हैं उसका पंद्रह द्वारोंसे विवरणान्तर्गत नामादि सात प्रकार, जघन्य-उत्कृष्ट क्षेत्र, संस्थान, अनुगामी-अवस्थित-चल अवधि, तीव्र-मंदता, प्रतिपाति-अप्रतिपाति अवधिके लक्षण, ज्ञान-दर्शनविभंग द्वारा विभिन्न जीवों के अवधि ज्ञानमें सादृश्य-वैशिष्ट्य, सर्व या स्वल्पता, संबद्ध-असंबद्ध अवधिज्ञानीका क्षेत्र, गत्याश्रयी जीवों के अवधिको लब्धि और कुल अट्ठाईस लब्धियोंका स्वरूप; मनःपर्यवज्ञानके दोभेद-ऋजुमति, विपुलमति-उसके अधिकारी और केवलज्ञानका वर्णन), 'अनुयोग द्वार' और 'गोम्मटसार' आधारित पल्योपम-सागरोपमका स्वरूप, वर्गशलाका, संख्यात
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