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________________ स्वामी गुरु ग्रह परसे जब केतुका परिभ्रमण होता है तब उन स्थानोंका आकस्मिक अशुभ परिणाम प्राप्त होता हैं, अर्थात् मिलनेवाले कुछ काल्पनिक लाभके स्थान पर, ऐसा लगता है जैसे कोई ऐसी आकस्मिक घटना घटित हुई और मिलनेवाला लाभ न मिल सका या हानी उठानी पड़ी। तदन्तर्गत परिवार हानि या परिवार के मुख्य व्यक्तिका निधन वा यदि स्वयं मुख्य सदस्य हों तब खुद की मृत्यु होनेकी संभावना होती आपकी आयुके तेईसवें, एकतालीस-बयालीस और साठवें वर्ष में केतुका ऐसा परिभ्रमण हुआ, परिणामतः A. तेईसवें वर्ष में आपको ऐसे ही किसीभी प्रकारका प्रसंग या अचानक बिमारीका प्रसंग प्राप्त हुआ होगा (विभिन्न विदृज्जनों द्वारा रचित आपके अनेक जीवनचरित्रों में से किसीमें इसका कोईभी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, लेकिन इस ग्रह भ्रमणसे व्युत्पन्न असर अवश्य ही हुआ होना चाहिए) B. एकतालीसवें वर्षमें आर्य समाजके स्थापक श्री दयानंदजी सरस्वतीके साथमें आपका शास्त्रार्थ आयोजित हुआ था। संभवतः इस शास्त्रार्थ से आपको कीर्तिलाभ या सत्य प्रस्थापित करने का अवसर प्राप्त होता-लेकिन, अचानक ही श्री दयानंदजी सरस्वतीके विष प्रयोगसे निधनने आपको इस लाभसे वंचित कर दिया। C. बयालीसवें वर्ष में लुधियानामें फैली जीवलेवा ज्वरकी बिमारीने आपको गंभीर असर किया, जिससे आपको बेहोशीमें तत्काल ईलाजके लिए लुधियाना से अंबाला लेजाना पड़ा। इसी बिमारी से ग्रस्त आपके शिष्य श्री रत्नविजयजीका कालधर्म हुआ। D. साठवें वर्षमें केतुके इस परिभ्रमणने, अचानक ही आयुष्यकी समाप्ति प्रदान करनेवाली सांसकी जीवलेवा बिमारीसे आपको परलोकका पथिक बना दिया। ३. षष्ठम अशुभ स्थान स्थित मंगल और गुरु पर से जब शनिदेवका परिभ्रमण होता है तब अशुभ फल प्रदान करता है। यह परिभ्रमण तेईस से पच्चीस और त्रेपन-पचपनके बीचके वर्षों में हुआ | A. तेईसवें वर्ष में इस अशुभ स्थान परसे केतु और शनिदेव पग्रहका पसार होना. निश्चित रूपसे अनहोनीका संकेत करता है। आश्चर्य है कि विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित एवं प्रकाशित आपके जीवनचरित्रों एवं प्रसंग परिमलों में इसका कहींभी कोई चित्रण या आलेखन प्राप्त नहीं होता है। B. आपके शिष्य परिवार में गहरी चोट प्रदाता---त्रेपनवें वर्षका यह भ्रमण आपके प्रिय प्रशिष्य श्री हर्षविजयजी म.का. इसी वर्ष में कालधर्म प्राप्त कराता है, जिससे आपके अपने निजी एवं शासन प्रभावनाके कार्यों में अनेक कठिनाइयाँ महसूस हुई। शनिदेवका मंगल ग्रह परसे परिभ्रमण आकस्मिक साहस और पराक्रमके लिए प्रवृत्त करता है। अथवा व्यक्तिकी सुषुप्त शक्तियोंको जागृत करता है, जिससे भविष्यमें लाभकारी परिणाम प्राप्त होते हैं । आपके जीवनमें भी जब यह समय आया तब, रतलामके चातुर्मासोपरान्त विवेकचक्षुके उद्घाटन फलस्वरूप आपने चिंतन-मनन-मथनान्तर, व्याकरण पढ़नेका निश्चय किया। तदनुसार पचीसवें वर्षकी आयुमें आपने रोपड़में-गुरुजनों के निषेधके विरुद्ध-सदानंदजीसे व्याकरण (110 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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