________________
होता है। पूज्य गुरुदेवको भी मेड़ताके एक वयोवृद्ध यतिजीने योग्य एवं समर्थ जानकर कुछ सिद्ध-मंत्र विद्यायें प्रदान की थी, जिसका आपने अपने जीवनमें शासन प्रभावना और समाज एवं संघ की हितरक्षाउन्नति आदिके लिए उपयोग किया था। २०
षष्ठम स्थानसे रोग-बिमारी-शत्रु-साथी-मददनीशों का सुख अंदाजित-निर्धार-किया जा सकता है- षष्ठम दुःस्थान स्थित कर्क राशिका मंगल नीचका बनता है, जिससे जातकमें अयोग्य गुरुकी अधीनता और आलस्य दृष्टिगोचर होता है, लेकिन ऐसे मंगल पर पूर्ण बलशाली-उच्चके शनि (लग्नेश) की पूर्ण दृष्टि होनेसे; चंद्र-मंगलका (तृतीय-षष्ठम स्थानका) परिवर्तन योग होनेसे और बलवान उपचय योग होनेसे; उच्चके गुरुके साथ युति संबंधसे 'नीचभंग' राजयोग होनेसे दुःस्थान स्थित नीचका मंगल, अशुभ फल-प्रदान दोषसे मुक्ति पाकर यथोचित मार्ग पर आता है। शुभ फलदायी बनता है। “परिणामतः पूज्य गुरुदेव शिस्तबद्ध संयमी, नीड़र, प्रामाणिक, कर्तव्यनिष्ठ विचक्षण बुद्धिवान् सिद्धान्तवादी शास्त्र पारंगत स्वमानी, स्पष्ट वक्ता और कार्यरत बनते हैं। आपको अपने कार्योंमें अचानक सफलता प्राप्त होती है।" २८ स्थानकवासी गुरु जीवनरामजीकी अधीनतासे मुक्त बनकर संवेगी गुरु श्री बुद्धि विजयजी महाराजजीके पास दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याणकारी पथ पर अग्रसर होते हैं और निरंतर कार्यदक्षता से कार्यक्षम बनते हैं। अन्य गुणोंकी सुवास भी उनके जीवनोद्यानको कदम कदम पर महका रही है | सत्य सिद्धान्तके पक्षपाती गुरदेवने अपने प्रिय-परोपकारी गुरु जीवनरामजीका साथ भी छोड़ा, साथसाथमें सुख-शांति-आरामको भी त्यागकर उपाधियोंकी झंझावाती आंधीमें जीवनको समर्पित कर दिया।
षष्ठम स्थान स्थित कर्क का-उच्चका-गुरु बहुमुखी प्रतिभा प्रदान करता है। शत्रुओंको नष्ट करता है, मानसिक झुकाव धर्म और ज्ञानकी ओर होता है। शरीर रोग रहित बनाता है। यही कारण है कि प्रायः आपका स्वास्थ्य एकाध प्रसंगको छोड़कर जीवन पर्यत ठीक ही रहा। आपके जीवन-दर्शनसे ज्ञात होता है कि अनेक बार जीवन में कई प्रतिस्पर्धी और प्रतिवादी, वैरी और विरोधी आये लेकिन आप सर्वत्र-सर्वदा शत्रुजयताका सौभाग्य प्राप्त करते रहे। वैरी भी वश हुए, शत्रु भी साथी बने और प्रतिस्पर्धी एवं प्रतिवादी शांत हो गए। इस षष्ठम स्थान स्थित कर्क का-उच्चका-गुरु-उच्चके शनि (लग्नेश)-जो बलवान बना है, उसकी भाग्य स्थानसे दसम-पूर्णदृष्टि-से दृष्ट है जिससे जिद्दी स्वभावकी निर्बलता दूर करके जातकको दढ़ मनोबली और उत्कृष्ट अध्यात्मवादी बनाता है। मानो मानव से देव, नरसे नारायण बनना बायेंहाथका खेल हों। जातकको स्वधर्मका त्याग करवाता है जैसे आप ब्रह्म क्षत्रिय कुलोत्पन्न होने पर भी गुण ग्राहीता एवं सत्य स्वीकार करके गुणावलंबित जैन धर्मी बने और अत्यन्त परिश्रम पूर्वक अन्ततोगत्वा शुद्ध मार्गके पथिक बनकर आत्मोत्थानमें कार्यरत रहें।" अनेक तीर्थ यात्राओंमें विशेष रूपसे सिद्धाचलकी यात्रामें आप परमात्ममय बनकर झूम उठे और फूट पड़े वह कोकिल स्वर “अबतो पार भये हम साधो.........जिससे आपके परमात्नदर्शनके भाव झलकते हैं। सप्तम स्थानसे जातकके जाहेरजीवन, दाम्पत्यजीवन, साथियोंका सहयोग और आध्यात्मिकताके
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org