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________________ श्रीमद्विजयानंद सूरि बने और संविज्ञ साधु संस्थाके लिए आचार्यपदका मानो द्वारोद्घाटन किया। वही समयज्ञता झलकती है श्री वीरचंदजी गांधीको, विश्वधर्म परिषदमें भाग लेकर जिनशासनकी महती प्रभावना करवानेकी दीर्घदर्शी ख्वाहीश पूर्ण करनेके लिए अमरिका भेजनेमें; फलतः पाश्चात्य विश्वमें जैन धर्मकी सच्ची प्ररूपणा और जैन सिद्धांतोंके प्रति जिज्ञासा प्रगट हुई एवं वर्तमान युगमें दृष्टिगोचर होनेवाले जैनधर्मके ये प्रचार और प्रसार शक्य हो सके। समयके योग्य परीक्षक सरिजीने प्राकत एवं संस्कतमें प्रकांड पांडित्य होने परभी तत्कालीन सामाजिक परिस्थितिको लक्ष्यमें रखकर अपना संपूर्ण साहित्य लोकभाषा-हिन्दीमें ही रचा और जैन वाङ्मयको लोकभोग्य बनाया। कालप्रवाहको सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण दृष्टिसे पहचानकर श्रावक समाजकी कुरूढि-परंपराये एवं अज्ञानतादि के अंधकारसे उद्धार करके आलोकित करनेवाले जैन समाजके प्रथम हितैषी सूरिराजके स्वरूपका हमें श्रीमद्वविजयानंदजी सुरीश्वरजीमें अनायास ही दर्शन होते हैं। (आपके प्रवचनोंके निर्देशन और साहित्य सागरकी सर्जन लहरियोंके प्रतिघोषोमें इस ध्वनिको अनुभूत कर सकते हैं।) - इस समयज्ञ सूरिजीकी विशाल और उदार भावनाने विश्वधर्मके सर्वथा सुयोग्य जैन धर्मका उपदेश केवल जैनोंको लक्ष्य करके ही नहीं, जैनेतरों-सर्व मानव मात्रके लिए-उपयोगी बन सके ऐसी लाक्षणिक शैलीमें प्रवाहित किया। संस्कृति एवं मनीषियोंकी जीवंत संस्था---आपके समयमें ज्ञानको जैसे हवा लग गयी थी। इस शेरए-पंजाबकी आक्रोशपूर्ण दहाड़की गूंजसे सुषुप्तोंकी निंद खुली। जैन समाज आहिस्ता आहिस्ता करवट बदलता हुआ जागृत होने लगा। आपने अपने अमोघ प्रवचन और अपूर्व लेखनसे शिक्षाके महत्वको प्रसारित किया और प्रचारित भी, जिससे शिक्षाकी ओर कदम बढ़ाते हुए जागृत समाजको योग्य मार्गदर्शन देते हुए कई विद्वान साधु एवं श्रावकोंको धर्मज्ञानाभिज्ञ बनाये जहाँभी गये संस्कृति प्रचार और विद्वान पंड़ितोंके निर्माण योग्य अनेक कार्य किये। मूर्तिपूजाके उत्थापक ढूंढ़क समाज़, आर्यसमाज़, ब्रह्म समाज़, प्रार्थना समाज़, थियोसोफिस्टादि से लोहा लेना बच्चोंका खेल न था। इसलिए तविषयक मनीषियोंको अत्यंत प्रोत्साहित करते हुए जैनधर्म-गंगाको क्षीण प्रायः होनेसे बचाकर इस अद्यतन भगीरथने उसे भागीरथीका रूप प्रदन किया। जैन संस्कृति और साथ साथ हिन्दू संस्कृतिके उत्थान-विकास-विस्तृतीकरणके लिए अथक परिश्रम और प्रयत्न आपके प्रवचन और साहित्यमें अनेक स्थानों पर मिलते हैं। ढूंढक समाजमें रहकर ही मुंहपत्ती विरुद्ध और मूर्तिपूजाका प्रचार करना मानो 'दिन दहाड़े चांद दिखानेवाली बात थी। लेकिन, दृढ़ आस्थावान, मानो सत्यके अभिन्न अंग, स. ज्ञानतपोमूर्तिने पंजाबमें चिरकाल तक भ. महावीरके शाश्वत-शुद्ध धर्मको अविचल बनानेके लिए; जी-जान पर खेलकर प्रयत्न किये और ज्वलंत विजय पायी। वर्तमान जैन समाजकी चतुर्विध संघकी-सर्वदेशीय जाज्ज्वल्यमान परिस्थिति आपही के जीवनकी फनागिरिका फल है। साधु संस्थाकी दयनीय दशाको प्राणवान बनाने और विशालता प्रदान करके अक्षय कीर्ति कमाई है। मंत्रवादी सूरिराज-सभी धर्मोंमें मंत्र-तंत्रका विशिष्ट स्थान माना जाता है। मंत्रसे अशक्य प्रायः (80) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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