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महावीर की मूलवाणीके तात्पर्यसे विरुद्ध हों। आपके विविध ग्रन्थों में लिपिबद्ध कुछ भाव- “ इन सर्व प्रश्नोत्तरोमें जो वचन जिनागमके विरुद्ध भूलसे लिखा गया हो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। सुझजन आगम अनुसार उसे सुधार कर लिख दें और मेरे कहे अपसूत्रका अपराध माफ कर दें। १०० जहाँ अपनी प्रगल्भ व्युत्पन्नमति बुद्धि प्रतिभारूप योग्यताके बल पर किसी शब्द या वाक्यका अर्थ लिखा है, जैसे कच्छ प्रदेशके अंजार गामके पास श्री भद्रेश्वरजी तीर्थमेंसे प्राप्त प्राचीन ताम्रपत्र पर अंकित पंक्तिका अर्थ लिखा है, वहाँ भी विनेय बनकर निर्दिष्ट किया है इस धत्यका एतिय रूप खरडे तथा कच्छ भूगोलमे लिखा है श्री वीर संवत तेईस वर्षमें यह जिन चैत्य बनाया। इस लिए हमने ताम्रपत्रके लेखकी कल्पना भी इसके अनुसार ही की है। किसी गुरु-गम्यतासे नहीं। इसलिए इसकी कल्पना कोई बुद्धिमान यथार्थ रूपसे अन्य प्रकारसे करके मुझे लिखें तो बडा उपकार होगा।” १०१
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जबकि श्री हरिभद्र सुरीश्वरजीके 'अयोगव्यवच्छेद' एवं 'लोकतत्त्व निर्णय' नामक ग्रन्थ और श्री हेमचंद्राचार्यजीके ग्रन्थ 'महादेव स्तोत्र के श्रेष्ठ विद्वत्ताके परिचायक अविकल अनुवाद और भावार्थ प्रस्तुत करके जो अपील की है विनीत संस्कारोंकी द्योतक है यथा ।
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"सर्वश्री संघसे हम नम्रता पूर्वक विनती करते हैं कि 'महादेव स्तोत्र', 'अयोग व्यवच्छेद', 'लोक तत्त्वनिर्णय' नामक ग्रंथोकी टीका तो हमें मिली नहीं है। केवल मूल मात्र पुस्तकें मिली हैं। वे भी प्रायः अशुद्ध हैं। परंतु कितने मुनियोंकी प्रार्थनासे बालावबोध रूप किंचिन्मात्र भाषा लिखी है। उनमें ग्रंथकारके अभिप्रायसे कुछ अन्यथा व जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हों तो हमें मिथ्या दुष्कृत हों। अगर हमारी बाल क्रीडामें भूल हो गई हों तो सुज्ञजनों द्वारा उसका सुधार कर लेना चाहिए । ११०२
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उपरोक्त विवरणमें जैसे जिनेश्वरोंकी वाणी एवं पूर्वाचार्योंके वचनों के प्रति जो अखंड आस्थापूर्ण विनयभाव दष्टिगोचर होता है, ऐसा ही अगाध श्रद्धायुक्त विनय समकालीन महापुरुषों के प्रति भी प्रवाहित होता रहता है यथा-१ गुरुबंधु श्री वृद्धिचंद्रजीसे स्वयं आचार्य होते हुऐ भी वंदन व्यवहार करना। २. श्री मूलचंदजी महाराजके शिष्य श्री तब्धिविजयजीम को भी स्वयंज्ञान-गुण और आचार्यत्वसे बड़े होने पर भी दीर्घदीक्षा पर्यायी होनेसे वंदना करनेकी तत्परता बतायी १०४ ३. सुरत चातुर्मासान्त श्री संघके श्रावकों की श्रेष्ठ साधु विषयक पृच्छा समय, अन्य समुदाय के होने पर भी विद्वान श्री मोहनलालजी महाराजजीकी ओर प्रशंसापूर्ण निर्दश किया और स्वंयसे श्रेष्ठ दर्शाकर श्रावकको आश्वस्त किया। १०५ ४. स्वंय आचार्य होने पर भी जब तक गणि श्री मूलचंदजी महाराज जीवित थे तब तक अपने साधुओंको योगोद्वहन और बड़ी दीक्षा जैसे कार्य उनसे ही करवाकर उनके प्रति विनयपूर्ण सम्मान प्रदर्शित किया। ५. जैन समाजके अरिहंत और केवली भगवंतोंके विरहमें सर्वोत्तम, पंचपरमेष्ठिके पंचपदी में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रजातंत्र राष्ट्र के राष्ट्रपति तुल्य- महत्तम, आध्यात्मिक गुरुताके सम्माननीय एवं उत्तरदायित्वपूर्ण पदासीन बनानेके गौरवपूर्ण अवसरोचित श्री संघकी विनती पर आपका श्रेष्ठ विनयपूर्ण और केवल सामाजिक भावना प्रदर्शित
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करता हुआ प्रत्युत्तर "संवेगी समुदायमें मेरी आचार्यकी उपाधिकी क्या आवश्यकता है? में गुरुदेवके चरणो में सबसे छोटा सेवक हूँ दीक्षामें बड़े मेरे गुरुभाई मांजूद हैं। मेरे लिए यह शोभास्पद नहीं कि मैं अपनेको उनसे बडा बनाऊँ। में इस पदके योग्य भी नहीं हूँ..
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