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है। बिना कलात्मकताके जीवन शुष्क-निष्प्राण या निर्माल्य सा बन जाता हैं। अतः कलाका मानवजीवनमें श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण स्थान है। जीवनके रसात्मक सौंदर्यानन्दसे तराबोर करनेवाली, कल्याणकारी, उत्तम और उदात्त भाव प्रदात्री कलाका साहित्यमें प्रमुख स्थान माना जाता है; क्योंकि कलासे काव्यमें भावोंकी संप्रेषणीयता
और भावाभिव्यक्तिको प्रबलता एवं सजीवता मिलती है। जो काव्यकृति प्राकृतिक सौंदर्यालेखन द्वारा जीवनोत्कर्षक घटना तथ्योंके चित्रांकन करती है: छंदोबद्धता एवं संगीतात्मक गेयतादिके साथ हृदयंगम भावों, आत्म विशुद्धिके उत्तम पथप्रदर्शन एवं सामाजिक कल्याणकारी अनुभूत सत्योंको प्रत्यक्ष करवाकर दूरस्थको निकट लाकर अदृश्यको दृश्यमान बना देती है-ऐसी अनेकविध कलात्मकताके साथ विविध भाव भंगिमाओंको समन्वित करके रची गयी हों वह काव्य कृति उत्कृष्ट कोटीकी बन सकती है और चिरस्मरणीय व विशेषतः अति लोकप्रिय भी बन जाती है।
“त्रिषष्ठी शलाका पुरुष” ग्रंथराजमें सूरि सम्राट श्री हेमचंद्राचार्यजी महाराजजीने पुरुषोंके लिए बहत्तर प्रकारकी और स्त्रियोंके लिए चौसठ प्रकारकी कलाओंके प्रथम तीर्थपति श्री आदिनाथजी भगवंत द्वारा किए गए सर्व प्रथम प्रचलन एवं प्रसारणका जिक्र किया है जिनमें वाद्य-उदकवाद्य-नृत्य-नाट्य-चित्रांकन-शिल्प-आलेखन, माल्य ग्रथनादि कलाओंके साथ साथ गीत-प्रगीत (काव्य) रचनाको भी कलाके रूपमें स्वीकार्य किया है। इन सभी कलाओंका अथवा इनमेंसे एकाधिक प्रकारकी कलाका जब एक ही विधामें समन्वय किया जाता है, तब काव्यानंद अपनी चरमावधि पर पहुँचता है।
कविसम्राट श्रीआत्मानंदजीम.की रचनाओंमें भी ऐसे ब्रह्मानंद सहोदर रसानंदका आस्वाद लिया जा सकता है। इनकी रचनाओंमें कई जगह शाब्दिक चित्रांकन हुआ है, तो कहीं पर नाद सौंदर्य छलकता है। संगीत तो इनकी रचनाओंका प्राण है, क्योंकि नैसर्गिक बक्षीसके रूपमें, जन्मजात गुणवत्ताके रूपमें, संगीत इनके रोमरोमसे प्रकट होता था। उनकी गद्यमय उपदेश-धारा(प्रवचनों) में भी संगीतकी झंकृति मिलती थी-वही आरोह अवरोह, लयबद्धता और तालके साथ उस स्वरसम्राटके शब्दरव श्रोताके कर्णपटल पर लास्य नर्तन करते रहते थे।
अतः प्रायः प्रत्येक काव्य रचना-गीत, प्रगीत, पद, मुक्तक, स्तवन, सज्झाय, पूजादि-में सर्वत्र रागरागिनियोंके ताल-लय-नाद या छंदोबद्धता पायी जाती है। फिर भी विशेष रूपसे इनकी रचनाओंमें खमाज, बडहंस, बिहाग, बसंत, माढ, भैरवी, मालकोश, जयजयवंती, पीलू, रेखतादि अनेक रागोंका; दीपचंदी, कहरवा, पंजाबी-ठेकादि तालोंका; मराठी, सोरठी, ठुमरी, गज़ल आदि चालोंका गुंजन श्रुतियुगलोंको झंकृत करता रहता है और प्राकृतिक-मानवीय एवं मानवेतरादि प्रासंगिक शब्द-चित्रोंके रंग अपनी प्रभा बिखेर रहे हैं। आपका प्रिय छंद है 'सवैया इकतीसा'-जिसमें 'उपदेश-बावनी' 'ध्यान-स्वरूप' आदिकी उपदेशात्मक रचनायें हुई है। जबकि दोहा, अडिल छंदोमें 'पूजा' आदि काव्य प्रकारोंका, इंद्रवज्रा आर्यावृत्तादिमें स्तवनादिका सृजन हुआ है। पूजाकी ढालोमें विविध रागोंका निरूपण, भावोंको उपयुक्त प्रवाहित प्रभावकता प्रदान करता है। जिस मालकोश रागमें श्री अरिहंत परमात्मा देशना (प्रवचन) प्रदान करते हैं और जो राग देवलोकके देवोंको भी अत्यन्त प्रिय है, उसी मालकोशमें कवीश्वरने अरिहंत परमात्माके देवों द्वारा मेरुगिरि पर किये जानेवाले जन्मोत्सवके उपलक्ष्यमें स्नात्र महोत्सवको वर्णित किया है जो मानो साक्षात् स्वरूपमें अत्यन्त प्रभावोत्पादक बन पड़ा है।
“न्हवण करो जिनचंद, आनंदभर न्हवण करो जिनचंद
कंचन तन कलश जल भरके, महके वास सुगंध....आनंद भर.... सुरगिरि उपर सुरपति सगरे, पूजे त्रिभुवन इंद....आनंदभर....
श्रावक तिम जिन न्हवण करीने, टेक कलिमल फंद....आनंदभर....
आतम निर्मल सब अघ टारी, अरिहंत रूप अमंद....आनंदभर....६३ इनके रसमाधुर्य और श्रुतिपेशलता एवं छटायुक्त सजधजके साथ चमत्कृत व मर्मस्पर्शी गेयकाव्योमें जो
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