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फूटकल पद-गीत- प्रगीत, नीति विषयक मुक्तक-सवैया, योग-ध्यान-साधनादिके विविध धार्मिक अनुष्ठानादिके पद एवं गीत ( स्तवन - सज्झाय आदि प्रकारान्तर्गत) लोकगीत-ढाल- देशियाँ और विविध राग रागिणीमें प्रस्तुत किये गये हैं; तो विभिन्न पूजा प्रबन्धोंका और तात्त्विक मुक्तकोंका आकलन किया गया है। अध्यात्म जगतकी दुर्दशा देखकर श्रीआत्मानंदजी म.सा. की जो आत्मपुकार उठी है, वह भी श्रोतव्य है, -
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"प्रथम विरह प्रभु तुम तो जो हो पूरवधर छेद देखो गति करमनी । पंचमकाल कुगुरु बहु पार्यो हो जिनमत बहु भेद बातको तरनकी।
राग द्वेष बिहु मन बसे, लरे हो जिस सोकण रांड-भूले अति भरममें।
अमृत छोर जहर पिए, लिए हो दुःख जिन मत छांड-बांधे अति करम में । ९६.
प्राचीन अर्वाचीनके स्वस्थ सामंजस्यकी चेतनाको उभारनेवाली काव्य-कृतियोंके आस्वादन करते हुए हमें उनके दास्य और माधुर्य भाव, नायक-नायिकाके सौंदर्य वर्णनके साथसाथ कर्तव्य निर्देशन, इतिवृत्तात्मकता और हास्य व्यंग्यका पैनापन आदिका अनुभव होता है। उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्तिके फलस्वरूप ही परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली प्रवृत्तियोंकी झलक मिलती है, जैसे-काव्यके उपयुक्त 'ब्रजभाषा'को ही मानने पर भी 'फूलोंका गुच्छ' आदि कृतियोंकी रचना खड़ीबोलीमें की हैं, तो उर्दू रचनायें भी प्राप्त होती हैं। डॉ. सुरेशचंद्र गुप्तके अभिप्रायसे- "संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि कविताके क्षेत्रमें वे नवयुगके अग्रदूत थे। अपनी ओजस्वीता, सरलता, भावमर्मज्ञता और प्रभविष्णुतामें उनका काव्य इतना प्राणवान है कि उस युगका शायद ही कोई कवि उनसे अप्रभावित रहा हो। ०९७. उनके गद्य विधाके 'नाटक' प्रकारकी कृतियोंमें भी कईं पद्य रचनायें प्राप्त होती है। श्रीभारतेन्दुजीके साहित्यकी दो विद्यायें (पद्य और गद्य) में दो शैलियाँ (भावावेश युक्त और केवल तथ्य निरूपण) प्रयुक्त हुईं हैं। प्रथममें छोटी-छोटी और सरल पदावलि और व्यवहार भाषाका स्वरूप दर्शित होता है तो कभी चितवनावस्थाकी भाषा गंभीर और लम्बे लम्बे वाक्य विन्यास युक्त है, जिसमें संस्कृत शब्दोंका मेल अधिक मात्रामें किया गया है। भावावेश शैलीका उदा“प्रिय प्राणनाथ मन मोहन सुंदर प्यारे छिनहूँ मत मेरे होहु दृगन सों न्यारे.....
घनश्याम गोप-गोपी पति गोकुलराई, निज प्रेमीजन हित नित नित नव सुखदायी । वृन्दावन रक्षक, ब्रज-सरबस, बलभाई, प्रानहुँ ते प्यारे प्रियतम मीत कन्हाई
श्री राधानायक जसुदानंदन दुलारे, छिनहुँ मत मेरे होहु दृगन सो न्यारे । ४.
एक एक शब्दमें कितने कितने भाव भरे हैं मानो सबकी अलग कथायें बन सकती हैं । तो दार्शनिक
चिंतनधारामें बहता भाषा प्रयोग देखें- “ कहो किमि छूटै नाथ सुभाव ।
काम क्रोध अभिमान मोह संग तनको बन्यौ बनाव,
ताहू मैं तुव माया सिर पैं और हु करन कुदाँव,
'हरिचंद' बिनु नाथ कृपाके नाहिंन और उपाय
अनादि स्वभावके छोडनेका एक मात्र उपाय 'नाथ कृपा' के चिंतनमें पद पूर्णता प्राप्त करता है । इस शैलीके गद्यके दृष्टान्त भी दृष्टव्य है-जैसे 'चन्द्रावलि' नाटकमें चन्द्रावलिके विरहोन्मादमें किये गये प्रलापअत्यन्त भावावेशमें हुआ है उसका निरूपण छोटी छोटी शब्दावलिसे अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है तो 'प्रेमजोगिनी' नाटक में सुधाकरके वचनोंमें काशीका और गुणी-दातार काशीवासियोंका वर्णन दो-चार पृष्ठों तक चलता रहता है।
श्रीआत्मानंदजी म. द्वारा भी गद्य-पद्य दोनों विधाओंका विभिन्न शैलियोंमें सर्जन हुआ है । प्रायः उनका गद्य सरल भाषा, सुबोध उदाहरण और आकर्षक वर्णनोंसे गूढ विषयोंको भी बोधगम्य बनानेवाला सिद्ध हुआ है । इन विभिन्न दार्शनिक तात्त्विक धार्मिक-शैक्षणिक विषयोंका प्रतिपादन मंड़नात्मक शैलीमें किया गया है, और इतर दार्शनिकों द्वारा किये गये सैद्धान्तिक विषयक भ्रामक आक्रमणोंके प्रत्युत्तरमें प्रतिकारात्मक
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