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________________ चूकी है कि इतर दर्शनके कइँ अमूल्य एवं अलभ्य या दुर्लभ्य ग्रन्थ-जो अन्य दर्शनियोंके संग्रहमें प्राप्त नहीं होते-जैन पुस्तकालय या ज्ञान भंडारोमें अथवा ग्रन्थ संग्रहोमें अद्यावधि समुचित रक्षा प्रबन्धके साथ सकुशल रूपमें विद्यमान हैं। दूसरा, जैन धर्मी छोटेसे छोटा बालक भी एक-एक कागजादि ज्ञानोपगरण या एकएक अक्षरमात्रकी हिफ़ाजतमें धर्म और नाशमें अधर्म मानता है:अतः उनको नाश होनेसे बचाते हैं। इस तरह “जैनों द्वारा ऐसे नाश"की बात कोई उपजाउ, कोरी गप्प ही मानी जायेगी। ऐसे अनेक करुणा जनक गपोडोंके लिए श्रीआत्मानंदजी म.सा.को उन पर तरस आता है क्योंकि उन्होंने कभी भी, कहीं पर, किसी प्रसंगवश ऐसी 'सत्यके मशालची' सदृश आकाश कुसुमोंका उपहार समाजको भेंट नहीं चढ़ाया। यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं किसीपर किचड़ नहीं डाला। हाँ, अन्यके द्वारा फेंके गये किचड़को आक्रोशपूर्ण तेजाब प्रवाह बहाकर उसकी ठीक सफाई अवश्य की है। अतः हम यह अनुभव कर सकते हैं कि दोनों युगवीरोंकी नस-नसमें, रोम-रोममें धर्म और समाजके उत्थानकी प्रबल ईच्छा थी। दोनोंकी कर्म-भूमि पंजाब देश थी दोनों प्रखर तत्कालीन समाजके जाने-माने वादि थे फिर भी उन दोनोंकी मुलाकात कभी न हुई। एक बार जोधपूरमें उनकी मुलाकात-चर्चासभाका आयोजन हुआ लेकिन वह आकार न पा सका। जिस दिन श्री आत्मानंदजी म. चर्चा हेतु जोधपुर पहुँचे उसी दिन स्वामीजीकी अज़मेरमें किसीने विषप्रयोगसे हत्या की। यह बड़ी दुर्भाग्यवान दुर्घटना हो चूकी। अगर वे दोनों सत्य-गवेषक और फिर भी एकदम विपरित मतवादियोंकी भेंट हो पाती तो अवश्य कुछ अनहोनी होनी थी। एक नवीन इतिहासका सर्जन, उनके मंथन-चिंतन-जो चर्चामें पेश होता, उससे बन पाता और धार्मिक इतिहासमें अभूतपूर्व क्रान्तिका आविर्भाव होता। फिर भी उनकी जो देन है उसे कोई भी समाज़ कभी भी नहीं भूला सकता। श्री पृथ्वीराजजी जैनके शब्दोमें-“उन महापुरुषोंका अगर जन्म न होता तो हिन्दु और जैन संस्कृतिकी कैसी दुर्दशा होती यह कल्पना भी असह्य है। शायद हमारे लिए यह जानना भी असंभव हो जाता कि किसी समय भारत विश्वका अध्यात्म गुरु रहा है। उन्हींके प्रभावसे चिकागोकी सर्वधर्म परिषदमें भारतीय संस्कृतिका बोलबाला रहा।"९५० साहित्यिक युगप्रवर्तक श्रीभारतेन्दु हरिश्चंद्रजी और सामाजिक युगनिर्माता श्रीआत्मानंदजी म.सा.:- यहाँ आधुनिक युगके-विशेषतः गद्य साहित्यके प्रवर्तक श्रीहरिश्चंद्रजी और हिन्दी भाषामें जैन वाङ्मयके प्रथम प्रयोजक श्रीआत्मानंदजी म.सा.की साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय विषयक हुई रचनाओंकी विशिष्टताओंकी तुल्यातुल्यताका परामर्श दिया जाता है, क्योंकि दोनों समकालीन और साहित्य क्षेत्रान्तर्गत समकार्यिक भी थे। चाहें उन दोनोंके साहित्य निर्माणके उद्देश्यमें हमें पूर्व-पश्चिमका भास होंक्योंकि एकको अभीष्ट था हिन्दी भाषाके गौरवकी वृद्धि-उत्थान और उत्कर्ष, जबकि एकको अभिप्रेत था संस्कृत-प्राकृतके वाङ्मय-वारिधिके तलगृहमें विधविध एवं अपरंपार ज्ञान-विज्ञानरूप रत्नराशि अंतर्निहित थी, उन्हें जन साधारणकी व्यवहार भाषा हिन्दीमें प्रकट करना और जैनधर्म विषयक इतर दर्शनियोंमें प्रचलित भ्रामक मान्यताओंके उलझे हुए जालको सुलझाकर विश्वके जैन वाङ्मय विषयक अज्ञानांधकारको विनष्ट करना-फिरभी दोनोंके अंतर्वेगों और उभयकी अभिव्यक्तियोंसे हमें ऐसे आसार मिलते हैं जो हमें उनकी तुल्यातुल्यताके अन्वेषणकी ओर आकर्षित करते हैं। उन्नीसवीं शतीके उत्तरार्धके पुनर्जागरणकालमें औधोगिकरण और प्रविधिकरणके सहारे संजोये गये 'परि-देश'के सपने साकार रूप धारण न कर सके। अतःव्यवस्थाका या प्रविधियोंका पूर्जा बननेवाले व्यक्ति, स्वतंत्र व्यक्तित्वके संधानमें गैर-रोमैंटिक और अमिथकिय साक्षात्कार रूप नूतन आकांक्षाओंके सहारे देशराष्ट्र-धर्म-ईश्वर आदिको आधुनिक परिवेशमें सजानेकी कोशिश करते हुए नयनपथ पर दृश्यमान होने लगे थे। उनकी अंतःचेतनाकी अभिव्यक्तिमें अधिकांशतः ‘स्वयंसे अभिज्ञ होकर पाश्चात्य बंधनोंसे मुक्तिकी भावना' मुखरित हुई। इस प्राचीन और अर्वाचीन युगके संधिकालको जिनके नामसे पहचाना जाता है, वे-साहित्यिक युग प्रवर्तक श्रीहरिश्चंद्रजी (इ.स. १८५० से १८८५), इतिहास प्रसिद्ध शेठ अमीचंदजीकी वंशपरंपरामें अवतरित (154) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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