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________________ भावोंको कहीं ढूंढनेके लिए जाना नहीं पड़ता-अनेक रचनाओमें हम उसका आस्वाद कर सकते हैं-यथा "तेरो दरस मन भायो चरम जिन तेरो दरस मन भायो । बरसीदान दे रोरतावारी, संयम राज्य उपायो..... दीन-हीनता कबुयन तेरे, सत् चित् आनंद रायो..... चरम... हुँ बालक शरणागत तेरो, मुझको क्युं विसरायो ? तेरे बिरहसे हुं दुःख पामुं, कर मुझ आतमरायो.... घरम"....२ “करुणा रस भर नयन कचोरे, अमृत रस बरसावे वदनचंद चकोर ज्यूं, निरखी, तनमन अति उलसाबेजी"..... " “अर जिनेश्वर चंद सखी मोने देखण दे.... गत कलिमल दुख धंद.... त्रिभुवन नयनानंद..... मोह तिमिर भयो अमंद.... सखी मोने..."३४ दोनों कविराजोंने अमूर्त भावोंका नाटकीय ढंगसे मानवीयकरण किया है, जो उनके पद्योंकी अछूती आभा है-यथा-श्रीआनंदघनजीकी रचनाओंमें देह नगरके राजवी चेतनजीकी, 'रतनागरकी जाई-समुद्रकी बेटी समता प्रमुख रानी और ममता, माया, मोहनी, तृष्णा, कुबुद्धि आदि उसकी अन्य रानियोंकी कहानी उनके विभिन्न पदोंसे झलकती है । समता या ममता-कुमता-तृष्णा-कुबुद्धि-सुबुद्धि-चेतन-(समताके भाई और चेतनके मित्र रूप) अनुभव और विवेक-राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मान, माया, कपट (आदि कुमतिका परिवार); सरलता-मृदुता-संतोष-श्रद्धा-इन्द्रिय-जयादि (सुमतिके स्वजन) आदि अमूर्त भावोंका मानवाकार रूपमें जीवन-व्यवहारके प्रत्यक्ष संघर्ष-संवाद-युद्ध-डराना-समझाना आदिका-जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है . समताके विरहको प्रकट करते हैं - “निसि अंधियारी मोहि हसे रे, तारे दांत दिखाई भादो कादो में कियो प्यारे, आंसूअन धार बहायी.....१३५ अतः विरहिणी समतारानी तृष्णा और कुबुद्धिको कोसती हुई चेतनजीको निजघर आनेके लिए मनुहार करती है . "तृष्णा रांड भांडकी जाई, कहा घर करे सवारो...... कुलटा कुटिल कुबुद्धि संग खेलके, अपनी पत क्यूं हारो... 'आनंदघन' समता घर आवे, वाजे जित नगारो...."३६ फिर भी जब चेतनजी मानते नहीं है और घर आते नहीं है, तब अपनी सखी श्रद्धासे उनके हाल पूछती है। उस पर श्रद्धा उसे धीर बंधाते हुए चेतनजीके हाल कहती है . ___ “चउगति महल न छारि ही हो, कैसे आत भरतार ! खानो न पीनो न इन बातो में हो, हसत भान न कहा हाड; ममता खाट परे रमे हो, और निंद दिनरात; लैनो न देनो इन कथा हो, भा रही आवत जात । कहे सरधा सुन सामिनि हो, एतो न कीजे खेदा; हेरे हेरे प्रभु आवही हो, वदे आनंदघन भेद...."३७ अब समता रानी अपने भाई 'विवेक'को, मोहनीके परिवारमें फंसे वेतनजीके हाल सुनाकर अपना दुःख जताती है और अपने मित्रको उस राहसे वर्जकर वापस लानेकी विनती करती है - “विवेकी वीरा सह्यो न परे, वरजो क्यूं न आपके मित्त...... कहाँ निगोड़ी मोहीनी हो, मोहत लाल गमार; वाके पर 'मिथ्या'सुता हो, रीज़ पड़े कहा यार। क्रोध-मान बेटा भये दो, देत चपेटालोक; लोभ जमाई माया सुता हो, एक चढ्यो पर मोक"...." आखिर सभीके समझाये चेतनजी अवसर प्राप्त करके अध्यात्म योग धरके समताके घर आकर उसे वादा करते हैं . “मेरी तूं मेरी तूं काहे डरे री, कहे चेतन समता सुनि आखर" इस प्रकार श्रीआनंदघनजीके चेतनजी आत्म कल्याणके सही राह पर आते हैं । वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.ने भी समता-कुमता (सुमति-कुमति) के साथ प्रीतका जोड़-तोड़-आध्यात्मिक योगको-व्यवहार प्रतीकोंसे आलेखित किया है । (138) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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