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म.की. पूर्वावस्थाका-जन्म-स्थान, माता-पितादिका निर्देश न उन्होंने स्वयं किया है और न उनके समकालीन किसी अन्य साहित्कारने ही तत्संबंधी जिक्र किया है । अतः उनके संबंधमें अंतःसाक्ष्य और बहिःसाक्ष्यदोनोंका अभाव है । हमारे सामने उनका साहित्य रूपी यशोदेह जो विद्यमान है वही उनकी केवल गुणगाथाको प्रकाशमान कर सकता है । इनकी कृतियोंके आधार पर आ.श्रीबुद्धिसागर सुरीश्वरजी म.सा., नटवरलाल व्यास, मोहनलाल दलीचंद देसाई, मनसुखलाल रवजीभाई, अगरचंदजी नाहटा, अंबाशंकर नागर, मोतीचंदजी कापड़िया, डॉ. वासुदेवसिंह, क्षितिमोहनसेनादि अनेक विद्वानोंने अपने अपने अभिप्राय प्रस्तुत किये हैं; लेकिन इन सभीमें विशिष्ट स्थान रखनेवाला निश्चित ऐतिहासिक तथ्योंको स्पष्ट उल्लिखित कर्ता “श्री सम्मेत शिखरजी तीर्थनां ढालियाँ"-संपादक आ.श्रीमद् पद्मसूरिजी म.- का संदर्भ अधिक उपयुक्त और सत्यसे अधिक निकट लगता है कि “श्री आनंदघनजी म., पं. श्री सत्यविजयजी गणिके लघुभ्राता थे और बडे भाईके साथ उन्होंने भी तपागच्छके क्रियोद्धारमें योगदान दिया था ।"२७ आचार्य प्रवरश्री आत्मानंदजी म.सा.ने भी अपने “जैन तत्त्वादर्श" के उत्तरार्धमें पृ. ५८१. में लिखा है कि-“श्री सत्यविजयजी गणिजी क्रियोद्धार करके श्रीआनंदघनजीके साथ बहुत वर्ष लग वनवासमें रहें और बड़ी तपस्या-योगाभ्यासादि करा" ।
अतः इन पूर्वोल्लिखित तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए निष्कर्ष रूपमें यह कहा जा सकता है कि पं.श्री सत्यविजयजीका जन्म वि.सं. १६५६ में लालूके दुग्गड़ गोत्रीय शा.वीरचंद ओसवालकी पत्नी वीरमदेवीकी रत्नकुक्षिसे हुआ था । इस आधार पर हम श्रीआनंदघनजी म.की जीवनीके स्थूल तथ्योंको प्रायः इस रूपमें निर्णित कर सकते हैं-श्रीआनंदघनजी म.का जन्म प्रायः वि.सं.१६६०के आसपास लाडलूमें दुग्गड़ गोत्रीय वीरचंदजीके घर माता वीरमदेवीके लघुपुत्रके रूपमें हुआ होगा । प्रायः बड़े भ्राता श्रीसत्यविजयजी गणिजीके साथ वे भी तपगच्छमें • शायद श्रीविजयदेवसूरिजीकी परंपरामें दीक्षित हुए होंगे । उनकी रचनायेंविशेषतः श्रीसुविधिनाथ जिन स्तवन और श्री नमिनाथ जिन स्तवनके अध्ययनोपरान्त हम निर्विवाद रूपसे उनको श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपराके श्रेष्ठ साधु मान सकते हैं । उनका देहोत्सर्ग प्रायः मेड़ता शहरमें वि.सं. १९३१के आसपासके समयमें हुआ होगा, जहाँ उनका समाधि स्थल बना हुआ है ।
अध्यात्मरसके महानंदको प्रवाहित करने में सामर्थ्यवान्, अद्भूत अध्यात्म मूर्ति, स्वभाव रमणताके लक्ष्यसे अत्यन्त जागृतावस्थाके लिए आत्मिक शक्तियोंको उजागर करनेवाले-त्यागी-वैरागी-स्वदेह ममत्वके त्यागीवनविहारी उत्तम कोटिके संत-बिना गच्छकी निश्रा, निवृत्तिमार्ग परायण श्रीमद् आनंदघनजी म.के अंतरमें एक ही तड़प या एक ही तलप अथवा एक ही ललक थी-'आत्माके साथ लगे हुए इस अनादिकालीन कर्म संयोगसे किसविध मुक्त हुआ जा सके ?'
अनेक आक्षेपकर्ताओंको उदार दिलसे क्षमा प्रदाता सच्चे क्षमाश्रमणकी आंतरिक वैराग्य भावना और करुणा भावनामें, अन्य साधुओंके शिथिलाचारादि संयोगोंने आगमें घीका कार्य किया । वे परिस्थितियाँ उन भावोंकी वृद्धिके निमित्त बनीं; उनकी निःसंगताके परिणाम अधिक वेगवान बने; परिणामतः वे वितंडावादफिजूल चर्चायें, विकथायें और गृहस्थके निरर्थक अधिक परिचयसे-स्पृहासे विमुख होने लगे । केवल क्षुधादि शमन या अत्यल्प अन्य जीवनावश्कताओंकी पूर्ति हेतु ही गृहस्थके संपर्कमें आते थे अन्यथा आत्माको वैराग्यभावसे भावित करते हुए, मंदकषायी बनकर मोहमल्लोंको हरानेमें आत्म सामर्थ्यको स्फूरायमान करनेसे अप्रमत्त चारित्र भाव द्वारा अंतर्मुख बनकर आत्मगुण विचारणासे अध्यात्मके अभिनव आत्मानुभूतियोंका अनुभव करते रहते थे । ये अनुभवज्ञाता अवधू महात्मा मानो शनैः शनैः उन अनुभूतियोंके अक्षयनिधि बनते गये। अखंडानंदकी मस्तीमें मस्त उस योगीश्वरकी बस एक ही लगन थी- एक ही रटण था - “निरंजन यार, मोहे कैसे मिलेंगें ?" उस अकल-यार की तलाशमें जन्म-जरा-देह-मृत्यु आदिसे अहंत्व-ममत्वभयत्वकी वृत्तिको हटाकर; बाह्य जगतका ध्यान व भान भूलकर आंतर्ध्यान दशामें-शरीरधारी होने पर भी अशरीरी तुल्य भावमें निःसंग दशामें निमज्जन करनेवाले स्वात्माके सच्चे आशिक थे । अतः आत्म दर्शनमें सहायकके अतिरिक्त अन्य सब कुछ, उनकी आत्मोपासना और परमात्म प्राकट्यकी अनूठी और
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