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________________ समाजकी मातृभाषा-जनभाषा-हिन्दी थी, उस स्वभाषामें ही सही, उन्हें जैनधर्मके तत्त्वज्ञ बनाया जाय । अतः उन तत्त्वगवेषक-समर्थ विद्वद्वर्यने अपनी उस अदम्य भावनाको मूर्तरूप देना प्रारम्भ किया । उन्होंने अनेकविध विषयोंका अनेक ग्रन्थ रचना करके उद्घाटन किया, जो जैन-जैनेतर, गंवार या विद्वान, तत्वज्ञ-मर्मज्ञ या अल्पज्ञ-सभीके लिए समान उपस्कर्ता सिद्ध हुई ।। ___“जिस प्रकार मनुष्यकी बुद्धि और चारित्रका तेज़ उसके नेत्रोमें प्रकाशित होता है, उसी प्रकार आत्मारामजी म.के अभ्यास, परिश्रम और प्रतिभाका आलोक आपको उनके देदीप्यमान ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर होगा । ये ग्रन्थ ही मौन रहते हुए भी हमेशाके लिए अमर रहनेवाली आत्मारामजी महाराजकी जीवित प्रतिमायें हैं । ये ही ग्रन्थ उस महापुरुषकी आत्माके तेजको आज भी अक्षर रूपमें एकत्र किये हुए हैं।६९ प्रत्येक साहित्यिक कृति तत्कालीन अवस्थाका परिचय देनेके साथसाथ उसके रचयिताकी अंतरंग आत्माका अभिज्ञापन करवाती है । उनमें छलकती भावनायें-दर्पणतुल्य-साहित्यकारके व्यक्तित्वके महद् अंशको यथार्थ रूपमें चित्रित करती है । श्री आत्मानंदजीम.का साहित्य भी उनके कीर्तिकलशको अमरत्व प्रदान करनेवाले अमृतकुंभ तुल्य है । उनके ग्रन्थोंमें 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह', 'अज्ञान तिमिर भास्कर' और 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' जैसी विद्वद्भोग्य रचनायें; 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर', 'जैन धर्मका स्वरूप', 'जैन मत वृक्षादि' जन साधारण योग्य रचनायें, 'जैन तत्त्वादर्श' जैसी 'जैनगीता' समान सर्वांगिण उपयुक्त रचना और 'चिकागो प्रश्नोत्तर' जैसी विश्व-स्तरीय रचनाओंका विविध रंगी इन्द्रधनुषी सुशोभन है; तो विषय वैविध्य, दार्शनिक, वैचित्र्य, विषय निरूपण करनेवाली शैलीका वैविध्य भी अपनी अलप-झलप दिखा जाते हैं । उनके ग्रन्थोमें ईसाई-बौद्ध, वैष्णवादि हिन्दू धर्म-शीखादि ईतर धर्मोंके धर्मग्रन्थोंके सूक्ष्म अध्ययन और परिशीलन पश्चात् उनमें प्ररूपित असंगत प्ररूपणाओंका खंडन किया है । अतः उनके साहित्यकी शैलीमें विषय प्रतिपादक शैली, खंडन-मंडनात्मक शैली (जिसमें संवादात्मक शैलीका भी उपयोग हुआ है । आलोचनात्मक शैली आदिका विषयानुरूप वैविध्य दृष्टिगोचर होता है । ___ 'नामूलं लिख्यते किंचित' इस सिद्धान्तका उन्होंने पूर्णतया पालन किया है । उनके साहित्यकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता ही यह है कि उनकी कृतियोंका, उनमें निरूपित विषयोंका आधार उनका सर्वांगिणविशद अध्ययन, और उन प्राचीन शास्त्र एवं ग्रन्थोंके अकाट्य प्रमाणोंको सशक्त तर्कबद्ध रूपमें प्रस्तुतिकरण। बालजीवोंके लिए प्रारम्भिक-सरलतम शैलीमें विषय आलेखन करनेके पश्चात् विद्वद्वर्ग एवं जिज्ञासु संशोधकोंके लिए विवरित विषयके विस्तृत अध्ययन हेतु अन्य सहायक ग्रन्थोंकी ओर इंगित करते हैं । परिणामतः “उनकी सरल शैली, सुबोध उदाहरण और आकर्षक वर्णनसे गूढ विषयको समझनेमें भी कठिनाई नहीं होती और जिज्ञासु संशोधक भी अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सकते हैं । उनके साहित्यसे विद्वानोंकी क्षुधा भी तृप्त होती है और साधारण पाठकोंकी ज्ञान-पिपासा भी शान्त हो जाती है । उनकी युक्तियाँ बालक भी समझ सकता है ।”७० उनकी कलमने विशेषतः दार्शनिक, धार्मिक, एवं सैद्धान्तिक विषयोंका विवरण एवं विश्लेषण किया है, जो सामान्यतया अत्यन्त कठिन और शुष्क, गहन और मस्तिष्ककी कवायत स्वरूप माने गये हैं, फिर भी उनकी लचकदार-मधुर शैलीके कारण उनकी कृतियाँ अत्यन्त लोकप्रिय हुई हैं, जिनकी दो-दो, पांचपांच आवृत्तियाँ हुईं । जिनसे प्रतिबोधित होकर कईं जैनेतर साक्षर भी जैनधर्मके प्रति आस्थावान्, बने। जो एक बार पढना प्रारम्भ करें, वह उसे समाप्त करने पर्यंत उसे छोड़नेका मन नहीं करता, और एक बार पढ़ लेनेके बाद बार-बार पढ़नेको ललचाता है । किसी उपन्यास, तुल्य लोकप्रियता तत्कालीन समाजमें ऐसे दार्शनिक ग्रन्थोंको प्राप्त होना वाकई अपने आपमें विस्मयकारी घटना थी । इसके अतिरिक्त उनकी रचनाओमें भौगोलिक-भूस्तरशास्त्रीय-खगोलिक-वैज्ञानिक (जीवविज्ञान, पदार्थविज्ञानादि), मनोवैज्ञानिक-पुरातत्त्व-ऐतिहासिक तथ्योंकी प्ररूपणायें भी तत्कालीन नूतन संशोधन और आविष्कारोंके आधार पर हुई हैं; जिनकी जानकारी उन्होंने पाश्चात्य विद्वानोंके ग्रन्थों, निवेदनों, पत्र-पत्रिकाओंके लेखों, पुरातत्त्व विभाग द्वारा खुदाईसे प्राप्त शिलालेखादि द्वारा प्राप्त की थी । वे अंग्रेजी भाषासे अनभिज्ञ थे, लेकिन (114) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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