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________________ जयन्तु वितरागाः श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र सद्गुरुभ्यो नमः विजय इन्द्रदिन्न, सूरि क शेठ मोतिशा रिलिजियस अॅन्ड चैरिटीबल ट्रस्ट मीकाम-कशेठ मोतिशा आदेशरजी जैन मंदिर २७, लव लेन (मोतिशा लेन) भायखला, मुंबई ४०० ०२७ फोन न.: ३७२०४६१, ३७१०७९२/ अशिवनगर ता.३३ तानम् निधाराण गम मदाम शान्ति र माम् परामभामा वनस्पसा जो विपलि मेसत् सभामदामाथ यो स्थान ११ ॥ सान शक्ति, धन मलिशामिविकसति हमि शाके मों पस्पेक मन्यों को मिली है। उसने सिनों शातिरोतानने सतप्रोतालले ओन दर्जन पूरुमो दुर्घमियाने लगाते हैं। इनसे पार विकार में पडकर सबके सामनभा । ॐ कैसे काल में अपनी शक्ति लाने से इलि लारनेशलेक काम करता है परन सदरमा को वेतन लाने जा चुमित करे को बार वाला बनता है। इनसे निश्चिमका अदाम का काम काक? से निकलने वातिर का सारे - माका किया बरोबर किया ३ अरमकोड 70 लान खोना माहामा आगो मामें वे भुने किया ह मसे आम थी हिला घरही इळा आपा परबने अनी रोजा मोरे हेरिसे आम उलिपिक मन तान ,नि उनका काकी मत करना आस्तिक बनाने वाला बनता है। सावरिकन मामने वीरकी २० ला माना जाना मना बा कोयन होता पन्तु जान पान नास्याहाला कि सत्ताकाट होत? वैसे ही खास रिकामीनी संयम लेकर अकयोको वापर कबोका निधन किताब मिल अपनी शक्ति जाना, बम राबता में गाकर जिवनमबल बताया नो पुस्तकको नामें अपना सनम जाकर अठरणों का मिटडी की साक मानताई आभार्म महिलासुद्धिका अनुमा उनकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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