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________________ उनके इस प्रकार के अनुभव तथा ऐसे ही अन्य लोगों को होने वाले अनुभव अनुसंधान का एक नया क्षेत्र खोल देते हैं । उनका एक विधान जैन कर्मवाद (Jain Karma Philosophy) को आश्चर्यजनक रूप में प्रतिबिंबित करता है । वे कहते हैं कि जो शक्तिकण इस शक्तिकवच के घिरे में आ जाते हैं उसे सूक्ष्म शरीर भोजन के रूप में ग्रहण कर लेता है । स्थूल दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने तीन प्रकार का आहार बताया है : 1.| | कवलाहार या प्रक्षेपाहार, 2. लोमाहार, 3. ओजाहार | 1. कवल के रूप में | पकाया हुआ धान्य आदि मुख द्वारा खाना कवलाहार या मुख द्वारा आहार लेने की संभावना न हो तब छिद्र करके प्रवाही देना या इंजेक्शन द्वारा सीधे ही खून में शक्तिदायक पदार्थ या औषध आदि देना वह प्रक्षेपाहार 2. | वातावरण में स्थित आहार पानी के सूक्ष्म अणु को रोम द्वारा ग्रहण करना लोमाहार और 3. गर्भस्थ शिशु या जीव उत्पत्ति के प्रथम क्षण में माता-पिता | के शुक्र-शोणित आहार करे वह ओजाहार | सूक्ष्मदृष्टि से जैन कर्म सिद्धांतानुसार यह आत्मा / जीव जितने आकाश प्रदेश में स्थित है उससे अनन्तर आकाश प्रदेश में स्थित कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करता है और आत्मा उसे अपने कार्मण शरीर में मिला देता है । इसके बाद वह आत्मा के साथ कथंचित् अभिन्न स्वरूप प्राप्त कर लेता है । ___ यही शक्तिकवच अर्थात् आभामंडल के बारे में श्री दत्त कहते हैं कि जैसे-जैसे शक्तिकवच का घिरावा बढता जाता है वैसे-वैसे शक्तिकणों को ग्रहण करने की और उनको उत्सर्जित करने की क्षमता भी ज्यादा बढ़ती है। ।। इसके बारे में ऐसा कहा जाय कि जैसे-जैसे आत्मा की उन्नति होती है वैसे-वैसे उनका शक्तिकवच अर्थात् आभामंडल ज्यादा ज्यादा बड़ा, शुद्ध व स्पष्ट होता जाता है । अतएव दैवी तत्त्वों अर्थात् देवी-देवता या तीर्थंकर परमात्मा का आभामंडल शुद्ध, स्पष्ट एवं आँखों से देखा जा सके ऐसा होता है । जड़ पदार्थों में भी आभामंडल होता है किन्तु सजीव पदार्थ की भाँति वह स्थिर नहीं होता या आध्यात्मिक विकास अनुसार उसका विकास नहीं होता है । वह तो प्रतिदिन क्षीण व निस्तेज होता रहता है । देवों में भी उनका आयुष्य छ: माह शेष रहने पर, उनका आभामंडल निस्तेज हो जाता - - 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002549
Book TitleJain Dharma Vigyana ki Kasoti par ya Vigyana Jain Dharma ki Kasoti par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherBharatiya Prachin Sahitya Vaigyanik Rahasya Shodh Sanstha
Publication Year2005
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Science
File Size6 MB
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