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________________ (179) गइ-तिर्यन्च एवं नरक दो गतियाँ, आणुपुट्विं तिर्यन्च आनुपूर्वी एवं नरकानुपूर्वी, चउरिंदी जाव एकेन्द्रिय,द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, चतुःइन्द्रिय पर्यन्त, जाईनाम =जाति व नामकर्म, आयावं आतप, उज्जो उद्योत, थावरनाम स्थावर एवं, सुहुमं सूक्ष्म, च और (180) साहारणमपज्जत्तं साधारण, अपर्याप्त, निद्दानि=निदानिद्रा, पयलपयलं प्रचलाप्रचला, च और, थीणं-स्त्यानगृद्धि, च तथा, अवसेसं= शेष, अट्टण्हं आठ कषाय(प्रत्याख्यान एवं अप्रत्याख्यान की आठ कषायें),खवेइ-क्षय करता है। (181) वीसमिऊण विश्राम करके, नियट्टो निवृत्ति, केवले केवलज्ञान के, दो समएहि सेसे-दो समय शेष रहने पर, पढमे सर्वप्रथम, निदं-निद्रा, पयलं प्रचला, नामस्स नामकर्म की, इमाउ पयडीओ=इन प्रकृतियों का (क्षय करता है)। (182) देवगइ देवगति, आणुपुव्वी-देवानुपूर्वी, विउव्वि वैक्रिय शरीर, पढमवज्जाइंसंघयण प्रथम वज्रवृषभनाराच आदि पाँच संहनन, अन्नयरं= बाद में या दूसरे, संठाणं संस्थान (पाँच संस्थान), तित्थयराहारनामं च= तीर्थङ्कर एवं आहारक नामकर्म। (183) चरमे अन्त में, पंचविहं नाणावरणं पाँच प्रकार के ज्ञानावरण कर्म (मति,श्रुत, अवधि,मनःपर्यय,केवलज्ञानावरण), चउविगप्पं दंसणं चार प्रकार के दर्शनावरण(चक्षु,अचक्षुअवधि,केवल) पंचविहमंतरायं=पाँच प्रकार के अंतराय कर्म(दान,लाभ,भोग,उपभोग एवं वीर्य) खवइत्ता क्षय करके, केवली-केवली होइ-होते हैं। (184) इअ = इस प्रकार, खवगसेणिपत्ता= क्षपक श्रेणी को प्राप्त (वे), चउरो वि= चारों ही, समणा= श्रमण, केवली= केवलज्ञानी, जाया= हो गए, ते= वे, जिणंते= जिनेन्द्र भगवान् के पास में, गंतूण= जाकर, केवलिपरिसाइ= केवलज्ञानी की परिषद् (सभा) में, आसीणा= बैठ गए। 72 सिरिकुम्मापुत्तचरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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