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________________ (156) भो भो= अरे! अरे!! , भविया= भव्यपुरुषों, सुणंतु= सुनो (यह), जीवो जीव, निगोअमज्झओ= निगोद के मध्य से, निग्गंतूण= निकलकर, बहूएहिंबहुत से, भवेहिं भवों से, कहमवि= किसी तरह भी (बड़े प्रयत्न से), मणुयत्तं= मनुष्य भव को, लहइ= प्राप्त करता है। . (157) मणुअत्ते= मनुष्य भव को, लद्धे= प्राप्त हो जाने पर, वि= भी, आयरिअं= आर्य, खित्तं= क्षेत्र को, दुलहं= बड़ी कठिनाई से, (दुर्लभपन से) पाविज्जप्राप्त किया जाता है (क्योंकि वहाँ), अणेगे= अनेक, दस्सुमिलक्खुयेसु= दस्यु एवं म्लेच्छ आदि, कुलेसु= कुलों में, उप्पज्जन्ति= उत्पन्न होना पड़ता है। (158) आरिएक्खित्ते आर्यक्षेत्र में, पत्ते जन्म लेने पर, वि=भी, पडुइंदियत्तणं पूर्ण इन्द्रियों से युक्त होना(प्राप्त करना), दुलहं दुर्लभ है(यहाँ संसार में) को वि=कोई भी, नरो व्यक्ति, पाएण-प्रायः, रोगेण रोग से, रहियतणू-रहित शरीर वाला, न दीसइ दिखाई नहीं देता। (159) पडुतणत्ते= कुशल शरीर के, पत्ते= प्राप्त होने पर, वि= भी, जिणधम्मोजिन धर्म को, सवणसंजोगो सुनने का संयोग, दुलहो= दुर्लभ (कठिन) है, जेण= क्योंकि, गुरुगुणिणो= महानगुणवान, मुणिणो= मुनि (एव) गुरू = गुरु, सव्वत्थ- सर्वत्र, न= नहीं, दीसन्ति- दिखाई देते हैं। (160) धम्मसवणे= धर्म श्रवण की, लद्धम्मि= प्राप्ति होने पर, रयणं= रत्न ( के समान), जिणवयणं= जिन वचन पर, सद्दहणं= श्रद्धान करना, दुलहं= अत्यंत दुर्लभ है, जेण= क्योंकि, विसयकह= विषय की कथाओं में, पसत्तमणो= आसक्त मन वाले, घणो= अनेक, जणो= व्यक्ति, दीसए = दिखाई देते हैं। (161) सद्दहणे= श्रद्धा के, संपत्ते= प्राप्त होने पर, (धर्म को) किरिआकरण= आचरण में उतारना, सुदुल्लहं= अत्यंत दुर्लभ (कठिन), भणियं= कहा गया है, जेणं क्योंकि, पमायसत्तू= प्रमादरूपी शत्रु, नरं मनुष्य को (धर्माचरण) करंत= करते हुए, वि=भी, वारेइ= रोकते हैं। 68 सिरिकुम्मापुत्तचरि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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