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________________ क्षपकश्रेणिकमः पुनरयम् - अण. मिच्छ मीस सम्मं अट्ठ नपुंसित्थिवेय छक्कं च। पुमवेअं च खवेई कोहाईए य संजलणे।। 178 11* क्षपक श्रेणी का कम इस प्रकार है :अर्थ : (क्रोध मान , माया और लोभ) अनन्तानुबन्धी एवं संज्वलन आदि (अनन्तानुबन्धी 4, अप्रत्याख्यान 4, प्रत्याख्यान 4, संज्वलन 4) कषायें ,मिथ्यात्व, मिश्र एवं सम्यक्त्व मोहनीय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेद (इन कर्म प्रकृतियों का) क्षय करता है। विशेषः-दर्शनमोहनीय की 3 प्रकृतियाँ तथा चारित्रमोहनीय की 25 प्रकृतियाँ होती हैं। गइआणुपुवि दो दो जाईनामं च जाव चउरिंदी। आयावं उज्जोअं थावरनामं च सुहुमं च ।। 179 || अर्थ : तिर्यंच एवं नरक दो गतियाँ, तिर्यंच एवं नरक दो आणुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जाति व नाम कर्म, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साहारणमपज्जत्तं निद्दानिदं च पयलपयलं च। थीणं खवेइ ताहे अवसेसं जं च अट्ठण्हं ।। 180 ।। अर्थ : साधारण, अपर्याप्त, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यान (नाम कर्म की प्रकृतियाँ) वैसे ही शेष आठ कषायों (अप्रत्याख्यान 4, प्रत्याख्यान 4) का क्षय करता है। वीसमिऊण निअट्टो दोहिं अ समएहि केवले सेसे । पढमे निदं पयलं नामस्स इमाउ पयडीओ।। 181 ।। देवगइआणुपुव्वी विउव्विसंघयणपढमवज्जाइं। अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ।। 182 || अर्थ : विश्राम करके निवृत्ति होने पर केवलज्ञान होने के दो समय शेष रहने पर सर्वप्रथम निद्रा, प्रचला, नामकर्म की प्रकृति, देवगति, * कसायपाहुड के क्षपणाधिकार की चूलिका में यह गाथा इसी रूप में प्रयुक्त हुई है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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