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________________ अर्थ : मनुष्य भव को प्राप्त हो जाने पर भी आर्यक्षेत्र को बड़ी कठिनाई से (दुर्लभपन से) प्राप्त किया जाता है। (क्योंकि वहाँ) अनेक दस्यु एवं म्लेच्छ आदि कुलों में उत्पन्न होना पड़ता है। आरिए क्खित्ते वि हु पत्ते पडुइंदियत्तणं दुलहं। पाएण को वि दीसइ नरो न रोगेण रहिअतणू।। 158 ।। अर्थ : आर्यक्षेत्र में जन्म लेने पर भी पूर्ण इन्द्रियों से युक्त होना (प्राप्त करना) दुर्लभ है। (यहाँ संसार में) प्रायः कोई भी व्यक्ति रोग से रहित शरीर वाला दिखाई नहीं देता है। पत्ते वि पडुतणत्ते दुलहो जिणधम्मसवणसंजोगो। गुरू गुरुगुणिणो मुणिणो जेण न दीसन्ति सव्वत्थ।। 159 ।। अर्थ : कुशल शरीर के प्राप्त होने पर भी जिन धर्म को सुनने का संयोग दुर्लभ (कठिन) है, क्योंकि महानगुणवान गुरु (एव) मुनि सर्वत्र दिखाई नहीं देते हैं। लद्धम्मि धम्मसवणे दुलहं जिणवयणरयणसद्दहणं। विसयकहपसत्तमणो घणो जणो दीसए जेण।। 160 || अर्थ : धर्म श्रवण की प्राप्ति होने पर रत्न (के समान) जिनवचन पर श्रद्धान करना अत्यंत दुर्लभ है, क्योंकि विषय की कथाओं में आसक्त मन वाले अनेक व्यक्ति दिखाई देते हैं। सद्दहणे संपत्ते किरिआकरणं सुदुल्लहं भणिअं। जेणं पमायसत्तू नरं करंतं पि वारेइ।। 161 ।। अर्थ : श्रद्धा के प्राप्त होने पर (धर्म को) आचरण में उतारना अत्यंत दुर्लभ (कठिन) कहा गया है, क्योंकि प्रमादरूपी शत्रु मनुष्य को (धर्माचरण) करते हुए भी रोकते हैं। यतः प्रमादः परमद्वेषी प्रमादः परमो रिपुः । प्रमादो मुक्तिपूर्दस्युः प्रमादो नरकायनम् ।। 162 || अर्थ : क्योंकि- प्रमाद अत्यंत द्वेष को (उत्पन्न करने वाला है), प्रमाद सबसे बड़ा शत्रु है। प्रमाद मुक्ति को लूटने वाला है (अर्थात् मुक्ति-प्राप्ति में बाधक है तथा) प्रमाद नरक का मार्ग है। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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