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________________ इअ चिंतिऊण चिंतारयणं निअकरतले गहेऊणं । नियदिट्ठीइ निरिक्खइ पुणो पुणो रयणमिदं य ।। 87 || अर्थ : इस प्रकार विचार करके चिंतामणि रत्न को स्वयं की हथेली पर लेकर के अपनी दृष्टि से बार-बार रत्न और चन्द्रमा को देखता इअ अवलोअंतस्स य तस्स अभग्गेण करतलपएसा। अइसुकुमालमुरालं रयणं रयणायरे पडियं ।। 88 ।। अर्थ : इस प्रकार उसको (रत्न तथा चन्द्रमा को) देखते हुए दुर्भाग्य से (उस व्यापारी की) हथेली से अत्यन्त सुकुमार एवं मूल्यवान वह रत्न समुद्र में गिर गया। जलनिहिमज्झे पडिओ बहु बहु सोहंतएण तेणावि। किं कह वि लब्मइ मणी सिरोमणी सयलरयणाणं।। 89 ।। अर्थ : समुद्र के बीच में गिरे हुए समस्त रत्नों में शिरोमणि (उत्कृष्ट) उस चिंतामणि रत्न को बार-बार खोजने (ढूँढ़ने) पर भी क्या कोई भी (किसी तरह) प्राप्त कर सकता है ? (अर्थात् कोई प्राप्त नहीं कर सकता)। तह मणुयत्तं बहुविहभवममणसएहि कहकह वि लद्धं । खणमित्तेण हारइ पमायमरपरवसो जीवो।। 90।। अर्थ : प्रमाद से भरे हुए (और उसके) अधीन, अनेक प्रकार के सैकड़ों भवों में भ्रमण करता हुआ जीव किसी तरह से (बड़ी कठिनाई पूर्वक) प्राप्त किए गए मनुष्यभव को क्षणमात्र में उसी प्रकार (मणि के समान) नष्ट कर देता है। ते धन्ना कयपुण्णा जे जिणधम्मं धरंति निअहियए। तेसिं चिअ मणुयत्तं सहलं सलहिज्जए लोए।। 91 ।। अर्थ : जो जिनधर्म को अपने हृदय में धारण करते हैं, वे पुण्यशाली (व्यक्ति) धन्य हैं। उनका ही मनुष्यपना इस संसार में सफल तथा प्रसंशा करने योग्य है। । सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 19 8888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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