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“चतुर्विधभोगस्वरूपं स्थानाङ्गेप्युक्तम्- चऊहिं ठाणेहि देवाणं संवासे पण्णत्ते, तं जहा
देवे णामं एगे छवीए सद्धिं संवासमागच्छिज्जा, देवे णामं एगे छवीए सद्धिं संवासमागच्छिज्जा, छवी णामं ऐगे देवीए सद्धिं संवासमागच्छिज्जा, छवी णामं ऐगे देवीए सद्धिंसंवासमागच्छिज्जा" इओ अ
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अर्थ : भोग के चार प्रकार के स्वरूप को बताते हुए स्थानाङ्गसूत्र में ठीक ही कहा गया है: - चतुर्थ स्थान में देवताओं के संवास का प्रज्ञापन ( व्याख्यान) किया गया है। जैसे:
1. कोई देव देवियों के साथ संवास करता है।
2. कोई देव छवी (स्त्री) के साथ संवास करता है।
3. कोई पुरुष (छवी) देवियों के साथ संवास करता है । 4. कोई पुरुष (छवी) स्त्री (छवी) के साथ संवास करता है ।
अह तस्सम्मापियरो पुत्तविओगेण दुक्खिआ निच्चं । सव्वत्थ वि सोहन्ति अ लहन्ति न हि सुद्धिमत्तं पि ।। 37 ।। अर्थ : इसके बाद पुत्र के वियोग से दुःखित उस (दुर्लभकुमार) के माता-पिता हमेशा सभी जगह पर उसे खोजते हैं, (किन्तु ) उसका पता (खोज) प्राप्त नहीं होता है ।
देवेहिं अवहरिअं नरेहि पाविज्जए कहं वत्युं । जेण नराण सुराणं सत्तीए अंतरं गरुअं ।। 38 ।। अर्थ : देवताओं के द्वारा हरण की गई वस्तु मनुष्यों द्वारा कैसे प्राप्त की जा सकती है ? (अर्थात् नहीं की जा सकती, क्योंकि मनुष्यों की और देवताओं की शक्ति में बहुत अधिक अन्तर (होता है ) ।
अह तेहि दुक्खिएहिं अम्मापियरेहि केवली पुट्ठो । भयवं कहेह अम्हं सो पुत्तो अत्थि कत्थ गओ ।। 39 ।। अर्थ : इसके बाद दुःखी मन वाले उन माता-पिता के द्वारा मुनि को पूछा गया - "हे भगवन्! कहिए, हमारा वह पुत्र (दुर्लभकुमार ) कहाँ चला गया।
सिरिकुम्मापुत्तचरिअं
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