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________________ मणि मयखम्भअहिट्ठिअपुत्तलिआकेलिखोभिअजणोहं । बहुभत्तिचित्तचित्तिअगवक्खसंदोहकयसोहं ।। 26 || अर्थ : मणि से युक्त खम्भे के नीचे बनी हुई पुत्तलिका की क्रीड़ाओं से लोगों में क्षोभ (ईर्ष्या) को उत्पन्न करने वाले (तथा) दीवालों पर अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित खिड़कियों के समूह से की गई शोभा वाला (वह भवन था)। एयमवलोइऊणं सुरभवणं भुवणचित्तचुज्जकरं। अइविम्हयमावन्नो कुमरो इअ चिंतिउं लग्गो।। 27 || अर्थ : इस तरह के संसार के (लोगों के) चित्त (हृदय) को आश्चर्य युक्त (एव) अत्यंत विस्मय युक्त करने वाले उस देवभवन को देखकर राजकुमार इस तरह विचार करने में लग गया। किं इंदजालमेअं एअं सुमिणम्मि दीसए अहवा। अहयं नियनयराओ इह भवणे केण आणीओ ।। 28 || अर्थ : क्या यह इन्द्रजाल है अथवा यह (मैं) स्वप्न में देखता हूँ अथवा (मुझे) अपने नगर से इस भवन में किसके द्वारा लाया गया है। इअ संदेहाकुलिअं कुमरं विनिवेसिऊण पल्लंके। विन्नवइ वंतरवह सामिअ वयणं निसामेस।। 2911 अर्थः इस प्रकार संदेह से व्याकुल कुमार को पलंग पर बैठाकर व्यन्तर वधू (यक्षिणी) निवेदन करती है- हे स्वामी! (मेरे) वचनों को सुनो। अज्ज मए अंजुमइ चिरेण कालेण नाह दिट्ठो सि। सुरभिवणे सुरभवणे निअकज्जे आणिओ सि तुमं ।। 30|| अर्थ : आज मैंने बहुत समय बाद अपने ऋजुमति आर्य (पति) को देखा है। (इसलिए मैं) अपने कार्य से तुम्हें सुगन्धित वन में (बने) इस देवभवन में लायी हूँ। अज्जं चिअ मज्झ मणोमणोरहो कप्पपायवो फलिओ। जं सुकयसुकयवसओ अज्ज तुमं मज्झ मिलिओसि।। 31 ।। अर्थ : आज ही मेरे मन का मनोरथ कल्पवृक्ष फलदायी हुआ है, जिससे अच्छी तरह किए गए पुण्य के वश से आर्य तुम मुझे मिले हो। सिरिकुम्मापुत्तचरिअं 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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