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________________ केवलकमलाकलियं संसयहरणं सुलोअणं सुगुरुं। पणमिय भत्तिभरेणं पुच्छइ सा जक्खिणी एवं ।। 16 ।। अर्थ : केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से सुशोभित, संशय को हरण करने वाले, सुलोचन नाम के गुरु को भक्ति पूर्वक प्रणाम करके वह यक्षिणी इस प्रकार पूछती है - भयवं पुव्वभवे हं माणवई नाम माणवी आसी। पाणपिया परिभुग्गा सुवेलवेलंधरसुरस्स ।। 17 ।। अर्थ : हे भगवान्! मैं पूर्वभव में मानवती नामकी मानवी थी। (भोगों को) पुनः-पुनः भोगते हुए सुवेलवेलंधर देव की पत्नी हुई थी। आउखए इत्थ वणे भद्दमही नाम जक्खिणी जाया। भत्ता पुण मम कं गइमुववन्नो णाह आइससु ।। 18।। अर्थ : आयु के पूर्ण होने पर (मैं) इस वन में भद्रमुखी नामकी यक्षिणी हुई थी। किन्तु मेरा पति किस गति में उत्पन्न हुआ है ? हे नाथ! आदेश करें (बताऐं)। तओ सुलोयणो नाम केवली महुरवाणीए भणइ :भद्दे निसुणसु नयरे इत्थेव होणनरवइस्स सुओ। उप्पन्नो तुज्झ पिओ सुदुल्लहो दुल्लहो नाम ।। 19।। तब सुलोचन नामके केवली मधुर वचनों द्वारा कहते हैं :अर्थ : हे भद्रे! सुनो, तुम्हारा वह प्रिय पति इसी नगर में द्रौणराजा का पुत्र अत्यन्त दुर्लभ "दुर्लभकुमार" नामक (के रूप में) उत्पन्न हुआ है। तं निसुणिअ भद्दमुही नाम जक्खिणी हिट्ठा। माणवईवधरा कुमरसमीवम्मि संपत्ता ।। 20|| अर्थ : उसे सुनकर हर्षित (वह) भद्रमुखी नाम की यक्षिणी मानवती का रूप धारण करके कुमार के समीप पहुंची। 4 सिरिकुम्मापुत्तचरिअं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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