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________________ जीवन सार्थक बनाओ' ऐसा उपदेश दिया है तथा शुभाशुभ कमों का अच्छा-बुरा फल मिलता है, इसका भी सुन्दर वर्णन किया है। राजमद से सेवक आदि को ऊपर फेंकने के अशुभ कर्म से ही कूर्मापुत्र सिर्फ दो हाथ प्रमाण का हो गया है। इस तरह कूर्मापुत्रचरित्र यह एक सरस प्राकृत धर्मकथा काव्य है। _ 'कुम्मापुत्तचरिअं' की भाषा प्रस्तुत 'कुम्मापुत्तचरिअं' प्राकृत का धार्मिक कथा-काव्य है। यह कथा पौराणिक है, तो भी इस काव्य की भाषा प्राचीन नहीं दिखती। इसमें देशी शब्दों का उपयोग नहीं किया गया। लेकिन कुछ स्थानों में शब्द रचना पर संस्कृत का गहरा प्रभाव दिखता है। क्योंकि उस समय विद्वानों की साहित्यिक भाषा संस्कृत थी। अपना कवि अनन्तहंस तो संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में अच्छी तरह से पारंगत था। देवेन्द्रगणि ने उत्तराध्ययनसूत्र पर 'सुखबोधा' नाम की टीका लिखी है। उसमें से 'अगडदत्तचरियं' के समान महाराष्ट्री प्राकृत भाषा से मिलती-जुलती इस कथाकाव्य की रचना होने से 'कुम्मापुत्तचरिअं' की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। श्लोक ७ और श्लोक ३६ के पश्चात् जो गद्यांश आये हैं, वे स्थानाङ्ग आदि सूत्रसाहित्य में से उद्धरण के रूप में अर्धमागधी प्राकृत में हैं तथा उत्तराध्ययनसूत्र और दशवैकालिक सूत्र से उद्धृत श्लोक भी अर्धमागधी प्राकृत में हैं। 'एए केवली भणिया दिटुंता सुणेऊण बिसेसं वेरग्गमावनो। एत्यंतरे (६२ के पश्चात्), तं च केरिसं (२४ के पश्चात्), इओ य (३७ के पूर्व), इत्यंतरे (१६५ के पूर्व), ऐसे कुछ वाक्य और सूचनायुक्त वाक्यांश भी इस काव्य के बीच-बीच में दिखते हैं। गाथा क्रमांक ५३, ११४, ११५ और १६२ श्लोक संस्कृत में लिखे हैं और वे सामान्य सुभाषित के रूप में हैं तथा 'चतुर्विधभोगस्वरूपं स्थानांगेऽप्युक्तम्' (३६ के पश्चात्), 'उक्तं च दशवैकालिके' (११८ के पूर्व), 'क्षपकश्रेणिक्रमः पुनरयम्' (१७८ के पूर्व), 'यदुक्तमागमे' उपदेशमालायां (११ के पूर्व), (४२ और १४४ के पूर्व), यदुक्तं (५३ के पूर्व), यतः (१४४ और १६२ के पूर्व), तथा हि (७४, ११७ और १६१ के पूर्व), किं तु (१२८ के पूर्व), इतश्च (६६ के पूर्व), तत्र चावसरे (१२२ के पूर्व) आदि कुछ संस्कृत वाक्य और संस्कृत वाक्यांश भी बीच-बीच में दिखते हैं। १२२ और १२३ गाथाएँ अपभ्रंश में हैं और उनमें कूर्मापुत्र के जन्मोत्सव का संक्षिप्त सुन्दर वर्णन किया है। इस कूर्मापुत्रचरित्र धर्मकथाकाव्य का प्रमुख लक्षण है-सरलता। सामान्य वाचक भी यह काव्य शुरू से अन्त तक सहजता से पढ़ सके, ऐसी इस काव्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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