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राजा तो बस यही सोचा रहा था कि यदि यह नट इलापुत्र मर जाये तो इस नट पुत्री के साथ विवाह कर लूँ। राजा से पूछने पर वह कहने लगा'मैंने करतब देखा ही नहीं, पुनः करो।' इलापुत्र ने पुन: किया। राजा ने फिर भी नहीं देखा। तीसरी बार करने पर भी नहीं देखा। चौथी बार इलापुत्र से कहा- 'पुनः करो।' सारी जनता विरक्त हो गई। इलापुत्र चौथी बार चढ़ा और बांस के अग्रभाग पर स्थिर होकर सोचने लगा-'भोगों को धिक्कार है। यह राजा इतनी रानियों से भी तृप्त नहीं हुआ और इस नटनी को अपना बनाना चाहता है।' इस नटपुत्री को प्राप्त करने के लिए मुझे मारना चाहता है।' यह सोचते-सोचते उसकी दृष्टि एक श्रेष्ठिगृह में सर्वालंकार भूषित स्त्रियों की ओर गई, जो एक मुनि को भिक्षा देने के लिए प्रवृत्त थीं। वे स्त्रियाँ सर्वाड्.ग सुन्दर थीं, परन्तु मुनि अत्यंत विरक्त भाव से नीचे दृष्टि किये हुए थे। इलापुत्र ने मन ही मन में सोचा- 'अहो! ये साधु धन्य हैं, जो विषयों से निस्पृह है। मैं श्रेष्ठिपुत्र हूँ, अपने परिजनों को छोड़कर यहाँ आया हूँ। यहाँ भी मेरी स्थिति ऐसी है, उसके परिणाम श्रेष्ठ होते गये और उसी अवस्था में उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।
उस नटपुत्री को भी वैराग्य हुआ। अग्रमहिषी और राजा के मन में भी विशुद्ध भाव उमड़े और सभी कैवल्य को प्राप्त कर सिद्ध हो गए।
आषाढभूति की कथा
आषाढभूति राजगृहाधिपति सिंहरथ का सुपुत्र था। एक बार धर्मघोष से उपदेश सुनकर विरक्त हो उसने दीक्षा ले ली। लेकिन रसयुक्त अन्न पर लोलुप होने से और विश्वकर्मा नट की दो सुन्दर कन्याओं का सौन्दर्य देखकर उसने मुनिवेष छोड़ दिया और उनके साथ संसार करने लगा। वह नटविद्या में पारंगत हो गया। एक समय उसकी स्त्रियाँ मद्यमांस के सेवन से उन्मत्त देखकर वह फिर संसार से विरक्त हो गया। अपनी स्त्रियों के निर्वाह के लिए धन कमाने की विनती करने पर वह राजा को भरतेश्वर के जीवन पर नाटक दिखाने लगा। भरतेश्वर की भूमिका को लेकर आरसेमहल में श्रृंगार करते समय उसके द्वारा एक अंगुली से मुद्रिका नीचे गिर गयी। उस श्रीहीन अंगुली को देखकर संसार की असारता पर चिन्तन करते समय शुद्ध भाव से उसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सिरिकुम्मापुत्तचरि
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