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________________ 12 आराधना प्रकरण यत्र-तत्र सर्वत्र मंगल, परममंगल, सिर्फ परम शिवत्व के अमर पद की स्वरलहरियाँ, रमणीय मूर्च्छनाओं एवं श्रुतियों के साथ अमरगुंजित है । आराधना एक महासागर गामिनी शान्तप्रवाहमान सलिला है, जिसमें एक बार भी जिस किसी ने डुबकी लगाई, वह अनन्त क्षीरसागर को प्राप्त कर ही लेता है। आराधना सच्चे जीवन की शुभ - कला है, जिसमें कलासाधक अपनी ही कला के बल पर वैसा सब कुछ प्राप्त कर लेता है, जो सहज प्राप्त नहीं होता । जीवन की विभूति - दायिका शक्ति है आराधना, जिसमें रूप से अरूप की, अशिव से शिवत्व की सफल यात्रा सम्पन्न होती है। आराधना रमणीयता के परम रूप का साक्षात्कार करने की विधि है, जहाँ 'यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति' की और 'त्रैलोक्य सौभगमिदं' विलसित होती रहती है। राम की रमणीयता, शिव का शिवत्व और कृष्ण की शक्ति की विभूति की त्रिवेणी का आह्लाद अभिधान है - आराधना । जहाँ केवल सरसता है, समरसता है और जीवन के परम मंगल का दिव्य स्रोत है, जिसको पाने वाला हर कोई प्राणी धन्य-धन्य हो जाता है, कीर्तिपुण्य हो जाता है। आराधना सम्पूर्ण द्वैध की विखण्डनाओं की, विडम्बनाओं की विलयभूमि है । वहाँ होता है केवल विश्वास, परम संतोष, परम आनन्द | इसी तथ्य को ध्यान में रखकर अमरकोशकार ने लिखा है ' आराधनं साधने स्यावासौ तोषणेऽपि च' अर्थात् यह साधना भी है, साध्य भी है और परमसन्तोष, परम विश्रान्ति भी है । 'आराधना' शब्द की निष्पत्ति 'आंङ्' उपसर्ग पूर्वक 'राध संसिद्यौ 2 धातु से भाव में ल्युट् एवं स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय करने पर होती है, जो प्रसन्नता, संतोष, सेवा, पूजन, उपासना, अर्चना, सम्मान, भक्ति आदि का वाचक है । " आराध्यतेऽनेन आराध्नोति या इति वा " अर्थात् जिसमें प्रभु, गुरु, इष्ट, परमात्मा या किसी भी पूज्य की सेवा और भक्ति की जाती है, या जो स्वयं भक्ति अथवा सेवारूपा है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही आराधना की धारा अविछिन्न रूप से प्रवाहित रही है । सनातन, जैन और बौद्ध तीनों ही धाराओं में अपने - अपने इष्ट के निमित्त सेवा, पूजा, उपासना, समर्पण आदि की परम्परा रही हैं। वेदों में अनेक देवी-देवताओं की आराधना की गई है। ऋग्वेद का प्रारम्भ ही अग्नि देव की आराधना से होता है- “अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारम् रत्नधातमम् " (ऋग्वेद 1.1)। “सनः पितेव सूनवेग्ने अग्ने सूपायनो भव । सचस्वानः स्वस्तये " (ऋग्वेद 1.19 ) । 1. अमरकोश, (3,125) अमरसिंहकृत, चौथा संस्करण, 1890, गवर्मेंट सेन्ट्रल बुक डिपो, मुम्बई 2. वाचस्पत्यम् (भाग-1) चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, 1969 3. ऋग्वेद संहिता (सायणाचार्यकृत) चौखम्बा प्रकाशन, 1997 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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