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मूगो य बोल्लेदि पंगू चलेदि, पस्सेदि अंधो बहिरो सुणेदि । जस्सप्पयासे णडेदि विग्धं, जिणिंदभयवं णिचं णमामि ॥४॥
__ अन्वयार्थ- (जस्सप्पयासे) जिनके प्रसाद से (मूगो य बोल्लेदि) मूक बोलता है (पंगू चलेदि) पंगु चलता है (पस्सेदि अंधो) अंधा देखता है (बहिरो सुणेदि) बहरा सुनता है (य) और (णटेदि विग्घं) विघ्न नष्ट होते हैं [उन] (जिणिंदभयवं) जिनेन्द्र भगवान् को [मैं] (णिचं णमामि) नित्य नमन करता हूँ । रोगा ण पस्संति कुविदा समाणा, दालिद पस्संति चगिदा हि दूरा। कुगदी विरता सत्तू समाणा, जिणदंसणेणं णमस्सणेणं ॥५॥
अन्वयार्थ- (जिणदंसणेणं) जिनेन्द्रदेव के दर्शनों से (णमस्सणेणं) नमस्कार करने से (रोगा ण पस्संति कुविदा समाणा) रोग कुपित हुए के समान नहीं देखते हैं (दालिद्द पस्संति चगिदा हि दूरा) दारिद्र चकित हुए के समान दूर से देखता है (कुगदी विरत्ता सत्तू समाणा) कुगति शत्रु के समान विरक्त रहती है । बंहा य विण्हू सिव, विस्सकम्मा, बुद्धं गणेसादि णामेहि जुत्ता । रामं हरिं जिण पण्ण? कम्मा, जिणिंदभयवं णिचं णमामि ॥६॥
अन्वयार्थ- (पण्णट्ठ कम्मा) प्रनष्ट कर्म हैं [ऐसे] (बंहा विण्हू सिव विस्सकम्मा बुद्धं गणेसादि) ब्रह्मा, विष्णु, शिव, विश्वकर्मा, बुद्ध, गणेश आदि (रामं हरिं) राम, हरि (य) और (जिण) जिन आदि (णामेहि जुत्ता) नामों से युक्त (जिणिंदभयवं) जिनेन्द्र भगवान् को [मैं] (णिचं णमामि) नित्य नमन करता हूँ। दिणेक्क जादा सुहपुण्णपुंजा, जिणिंद-देवस्स णमस्सणेणं । अणंतजम्मेण सो वि णो जादा, णंतेण कज्जेण सुमंगलेणं ॥७॥ ____ अन्वयार्थ- (जिणिंद-देवस्स णमस्सणेण) जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने से [जो] (सुहपुण्णपुंजा) शुभ पुण्य का पुंज (दिणेक्क जादा) एक दिन में ही उत्पन्न हो जाता है (सो) वह (णतेण कजेण
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