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अन्वयार्थ- (एगरुक्ख समारुढा) एक वृक्ष पर बैठे हुए (णाणावण्णा विहंगमा) नाना वर्ण के पक्षी (ऊसाए) प्रात:कालीन बेला में (दससु दिसा) दश दिशाओं में [उड़ जाते हैं] (तत्थ) उसमें (का) क्या (परिवेयणा) दु:ख करना । । . भावार्थ- एक वृक्ष पर बैठे हुए विविध वर्गों के विविध पक्षी प्रात:काल होते ही विविध दिशाओं में उड़कर चले जाते हैं, अब इसमें दुःख की क्या बात है अर्थात् ऐसा तो होता ही रहता है । जहाँ संयोग होगा, वहाँ वियोग भी अवश्य होगा । इसलिए किसी के वियोग में क्या दु:ख करना ।
अणवट्ठिद-कज्जस्स, णो जणे णो वणे सुहं । जणे दहेदि संसग्गो, वणे संग विवजणं ॥९७||
अन्वयार्थ- (अणवट्ठिद-कज्जस्स) अनवस्थित कार्य वाले को (णो जणे णो वणे सुहं) न मनुष्यों में, न वन में सुख [होता है] (जणे दहेदि संसग्गो) मनुष्यों में संसर्ग [तथा] (वणे संग विवजणं) वन में संग विवर्जन (दहेदि) जलाता है । ____ भावार्थ- जिसका मन स्थिर नहीं है अथवा जो स्थिर मन से कोई भी कार्य नहीं करता, वह मनुष्य न तो मनुष्यों के बीच ग्राम, नगर आदि में रहता हुआ सुखी हो सकता है और न ही वन-जंगल में; क्योंकि मनुष्यों के बीच में उसे अच्छा-बुरा संसर्ग-संपर्क जलाता है, तो जंगल में संग विवर्जन भी भीतर-भीतर जलाता रहता है । स्थिरमनवाला मनुष्य हर जगह हमेशा सुखी रहता है ।
जहा घेणू सहस्सेण, वच्छो गच्छेदि मायरं । तहा जेण कयं कम्म, कत्तारमणुगच्छदि ॥९८॥ __अन्वयार्थ- (जहा) जैसे, (धेणू सहस्सेण) हजारों गायों में (वच्छो) बछड़ा (मायरं) माता को (गच्छेदि) प्राप्त करता है (तहा) वैसे ही (जेण कयं कम्म) जिसका किया कर्म है (कत्तारमणुगच्छदि) कर्ता का अनुशरण करता है।
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