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________________ सम्पादकीय I साहित्य जीवन निर्माण और समष्टि के लिए विराट् दिशा निर्दिष्ट करता है । उसकी अभिव्यक्ति में निकटता, जीवन की गंभीरता और परिवर्तन की मार्मिक भावनाएँ समाहित रहती हैं। इसमें यथार्थ का परिशोध होता है, जो धर्म और दर्शन की भूमि प्रदान करता है । इसमें सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना होती है जो मनुष्य और सम्पूर्ण जीव जगत को आनन्द प्रदान करता है। इसके सृजन में नये संवेदन जन्म लेते हैं । नये सौन्दर्य बोध का उदय होता है और नये-नये विचारों के कारण विश्वास का स्मरण होता है। इसके मूल में सत् चित् और आनन्द का स्वरूप होता है जो चरम स्थिति तथा ज्ञान के उत्कर्ष की ओर ले जाता है। सत् मनुष्य में आत्मअभिव्यक्ति कराता है उससे ज्ञान का सम्पूर्ण विचार-विमर्श लेकर परम ज्योति प्रदान करता है । चित् शक्ति का उत्कर्ष है जो भारती, वाणी, सरस्वती, वाग्देवता, श्रुत देवी आदि के रूपों को प्रदान करता है । आनन्द तत्त्व में जीवन का संतुलन रहता है, इसमें रमणीयता का भाव भी होता है। आनन्द सोऽहं का पाठ पढ़ाता है। यह मुक्ति का सोपान है । I T साहित्यकार की अभिव्यक्ति में काव्य और शास्त्र ये दोनों दृष्टियाँ समाहित होती हैं । शास्त्र में श्रेय रहता है और काव्य में अनुभूतियों का प्रयत्न रहता है । वस्तुत: साहित्य सृजन समग्र जीवन और समस्त शक्तियों से जुड़ा रहकर महानता की ओर ले जाता है । विषय वैविध्य की दृष्टि से साहित्य समाज का दर्पण बन जाता है । यही श्रेष्ठतम संस्कृति का द्योतक बनकर व्यष्टि रूप अनुभूति को समष्टीरूप प्रदान करता है। उसमें निहित अनुभव विविध आयामों को प्रस्तुत करता है । उसमें कहीं प्रेम की मंदाकिनी बहती है तो कहीं पर करुणा रस की धारा भी गतिशील बनी रहती है और कहीं इसकी मुक्त शैली इस माधुरी को अभिव्यक्त करने में भी नहीं चूकती है । निस्संदेह साहित्य जीवन के सभी प्रश्नों के ...समाधानों में लगा हुआ भाव, रस, माधुर्य और सुख-दुख के वातावरण को भी प्रस्तुत करता है । I प्राकृत साहित्य का अपना एक पृथक वैशिष्ट है। जिसमें प्रबन्ध और मुक्तक दोनों ही प्रकार के काव्यों का प्रणयन हुआ है । जो काव्य की अविरल धारा से जुड़ा हुआ सहृदयों के हृदय को परितृप्त कर रहा है। इसमें लोक की अभिव्यक्ति इनके प्रबन्ध में व्यापकता है । बड़े-बड़े प्रबन्ध शलाका पुरुषों के मौलिक रूप को उद्घाटित करते हैं, उनके मूल में धर्म, दर्शन और सिद्धांत की गहराई भी VII Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002546
Book TitleNidi Sangaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar
PublisherJain Sahitya Vikray Kendra Udaipur
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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