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के लिए ही, निज आत्मोन्नति के लिए ही जीवन जीते हैं, वे निश्चित ही स्वर्गों में जाने वाले हैं । ऐसे जीव परम्परा से मुक्ति भी प्राप्त करते हैं।
दाणे तवम्हि सूरम्हि, विण्णाणे विणएज्जये । माणं वा णो य कादव्वं, विविहो रयणा मही ॥४७॥
अन्वयार्थ- (दाणे तवम्हि सूरम्हि विण्णाणे विणएजये) दान, तप, शूरता, विज्ञान, विनय (य) और विजय में (माणं) मान (वा) अथवा [आश्चर्य] (णो) नहीं (कादव्वं) करना चाहिए क्योंकि] (विविहो रयणा मही) धरती विविध रत्नों से युक्त हैं ।
भावार्थ- दान, तप, शूरवीरता, विशिष्ट ज्ञान, विनय करने की कला और दूसरों को जीतने की क्षमता में अभिमान नहीं करना चाहिए; तथा 'वा' पद से यदि दूसरे मनुष्य इन गुणों से युक्त दिखते हैं तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए; क्योंकि यह धरती विविध प्रकार के रत्नों से भरी हुई हैं।
रोगे पत्थं खले दुळ, सामीए सच-दंसणं । णाणे झाणं धणे दाणं, थीए मद्दवमोसहं ॥४८॥
अन्वयार्थ- (रोगे पत्थं) रोग में पथ्य (खले दुर्छ) खल में दुष्टता (सामीए सच्च-दसणं) स्वामी में सत्य दर्शन (णाणे झाणं) ज्ञान में ध्यान (धणे दाणं) धन में दान [तथा] (थीए मद्दवं) स्त्री में मार्दवता (ओसह) औषधि है ।
भावार्थ- रोग होने पर उसके पथ्य का पालन करना, खल के सामने दुष्टता से पेश आना, स्वामी-गुरु अथवा पूज्यजनों को सही बात बताना, ज्ञान बढ़ने पर ध्यान बढ़ाना, धन होने पर दान देना और स्त्री से प्रेम व्यवहार रखना, ये इनकी औषधि अर्थात् दवा है।
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