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भावार्थ- चन्द्रमा, सूर्य, जल बर्षाने वाले मेघ, नदी, गाय और सज्जन मनुष्य ये विना प्रार्थना के ही लोक का उपकार करते रहते हैं । इनमें उपकार करने की महान् सामर्थ्य है और ये बिना किसी अपेक्षा के जगत का सतत् उपकार करते हैं । चिंतादो णस्सदे णाणं, चिंतादो णस्सदे बलं । बाही होदि य चिंतादो, तम्हा कुजेह चिंत णो ॥४०॥ ___ अन्वयार्थ- (चिंतादो णस्सदे णाणं) चिंता से ज्ञान नष्ट होता है (चिंतादो णस्सदे बलं) चिंता से बल नष्ट होता है (य) और (चिंतादो) चिंता से (बाही होदि) व्याधि होती है (तम्हा) इसलिए (चिंता) चिंता (णो) नहीं (कुज्जेह) करो ।
भावार्थ- चिन्ता करने से ज्ञान, बल-शारीरिक तथा मानसिक बल नष्ट हो जाता है और अत्यधिक चिन्ता करने से ही बड़ी-बड़ी बीमारियाँ होती है, इसलिए व्यर्थ ही खून को जलाने वाली और कर्मों का बन्ध कराने वाली खोटी चिन्ताओं का त्याग कर देना चाहिए ।
एगलो असहेज्नो हं, किसो य अवरिच्छिदो । सिविणे वि ण सोचेदि, वणराओ-दिवायरो ॥४१॥ ___ अन्वयार्थ- (वणराओ-दिवायरो) वनराज [तथा] सूर्य (किसो हं) मैं कृष् हूँ (असहेजो) असहाय हूँ (अवरिच्छिदो) उपकरणों से रहित (य) और (एगल्लो) अकेला हूँ [ऐसा] (सिविणे वि) स्वप्न में भी (ण सोचेदि) नहीं सोचते हैं ।
__ भावार्थ- प्रस्तुत छन्द स्व-पराक्रम का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया है । वनराज-सिंह तथा दिवाकर-सूर्य स्वप्न में भी यह नहीं सोचते हैं कि मैं कृष्-दुबला हूँ, असहाय हूँ, सहायक सामग्री से रहित और अकेला हूँ । इसका यह भाव है कि पराक्रमी मनुष्य समय आने पर इस प्रकार की चेष्टा भी करते हैं ।
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