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स-हाव-सुचिदा मित्ती, चागो सचं अणालसं । सुसीलं सूरदा एदे, गुणा संपत्ति हेदुओ ॥३०॥
अन्वयार्थ- (स-हाव-सुचिदा) स्वभाव की शुचिता, (मित्ती) मैत्री-भाव (चागो सचं अणालसं सुसीलं सूरदा) त्याग, सत्य, अनालस्य, सुशीलता [तथा] शूरता (एदे गुणा) ये सब गुण (संपत्ति हेदुओ) सम्पत्ति के हेतु हैं ।
___भावार्थ- स्वभाव की निर्मलता, सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव होना, त्यागशीलता, सत्यवादिता, आलस्य (प्रमाद) की रहितता; सुशीलता-नियमित जीवन शैली और शूरवीरता ये सब गुण धन-सम्पत्ति, मान-सम्मान और पर-भव में भी सुख प्राप्त कराने वाले हैं ।
जेट्टत्तं जम्मणा णेव, गुणे हिं जेट्ठ वुचदे । गुणा गुरुत्त-माएदि, दुद्धं दहिं घिदं जहा ॥३१॥ __अन्वयार्थ- (जेतृत्तं जम्मणा णेव) जेष्ठत्व जन्म से नहीं होता [अपितु] (गुणेहिं जेट्ट वुच्चदे) गुणों के द्वारा जेष्ठता कही गई है [क्योंकि] (गुणा गुरुत्त-माएदि) गुणों से गुरुता जन्मती है (जहा) जैसे (दुद्धं दहिं घिदं) दूध, दही [और घी ।
भावार्थ- जेष्ठत्व-बड़प्पन जन्म से नहीं अपितु गुणों से होता है, क्योंकि गुणों से ही गुरुता का जन्म होता है । पहले जन्म, दीक्षा, शिक्षा, प्रवेश लेने से कोई बड़ा नहीं होता, वस्तुत: गुणों से ही बड़प्पन आता है । जो गुणों में बड़ा है, वही बड़ा है । जैसे क्रमश: दूध, दही और घी । चूंकि इनका जन्म बाद-बाद में हुआ है फिर भी दूध से दही और दही से घी श्रेष्ठ (बड़ा) माना जाता है।
पुत्त-दारा-गिहेहिं च, विजुत्तेहिं धणादु वा । बहुलस्स दुहे जादे, एगो सेय-करी धिदी ॥३२॥
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