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अन्वयार्थ- (जो जीवाणं हंतमाण) जो काल जीवों को मारता हुआ प्रवर्त रहा है (जेण) जिससे उसका] (णिवज्जेज्ज) निवारण हो [ऐसा] (कोई उपायो ण विजदे) कोई उपाय न है (णो भूदो) न भूत में था [और] (णो भविस्सदे) न भविष्य में रहेगा ।
भावार्थ- जो यमराज अथवा मृत्युरूपी काल (शत्रु, समय) जीवों को मारता हुआ प्रवर्त रहा है, वह अनादि काल से ऐसा कर रहा है, किन्तु आज तक कोई भी ऐसा उपाय संसार में हाथ नहीं लगा जिसके द्वारा उसे रोका जा सके । न तो भूतकाल में उसका निवारण करना सम्भव था, न वर्तमान में है और न भविष्य में रहेगा । काल का निवारण तो असम्भव है, पर यदि जीव अपनी आत्मा को विशुद्ध कर लें तो वह जन्म-मरण के फन्दे से जरूर छूट सकता है।
णो मादा णो पिदा बंधू, णो पुत्ता ण य भारिया । मिचुकाले पजादस्स, गच्छेति पुण्ण पाव हि ॥२२॥ ___ अन्वयार्थ- (मिच्चुकाले पजादस्स) मृत्युकाल के आने पर (पुण्ण-पाव हि) पुण्य पापही (गच्छेति) [साथ] जाते हैं (णो मादा णो पिदा बंधूणो पुत्ताण य भारिया) न माता, न पिता, न बन्धुजन, न पुत्र और न पत्नि ।
भावार्थ- मरणकाल के आने पर अर्थात् मृत्यु होने पर मातापिता, भाई-बन्धु, पुत्र-पुत्रियाँ, पत्नि और रिश्तेदार कोई भी साथ नहीं जाते हैं; वस्तुत: एक स्वयं के द्वारा अर्जित किये पुण्य-कर्म और पाप-कर्म ही साथ जाते हैं, अन्य कुछ भी नहीं ।
जत्थ कामत्थ-उज्जोओ, किदो वि णिप्फलो हवे । तत्थ धम्म-समारंभो, संकप्पो णो हि णिप्फलो ॥२३॥
अन्वयार्थ- (जत्थ) जहाँ (कामत्थ-उज्जोओ) काम-अर्थ का उद्योग (किदो वि) किया हुआ भी (णिप्फलो) निष्फल (हवे)
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