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भावार्थ- सुपात्रों में दान देना, जीवों पर दया करना, इच्छाओं का दमन करना, दर्शन तथा जिनेन्द्र-देव की पूजन करना । ये पाँच कार जिन मनुष्यों में विद्यमान रहते हैं, वे दुर्गति खोटी गति में नहीं जाते हैं । 'दर्शन' शब्द के यहाँ दो अर्थ किए हैं- १. सच्चे - देव का प्रतिदिन दर्शन करना, २ . सम्यग्दर्शन प्राप्त होना या प्राप्त करने
का प्रयास करना ।
मज्जं मंसं महुं मूलं, मक्खणं - माण- मूढदं । णिचं भव्वाण चत्तव्वं, मकारा सत्त दुक्खदं ॥१५॥
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अन्वयार्थ- (मज्जं मंसं महुं मूलं मक्खणं - माण - मूढदं) मद्य, मांस, मधु, कंदमूल, मक्खन, मान, मूढता ( दुक्खदं) दुख देनेवाले (सत्त मकारा ) सप्त मकार ( णिच्चं ) हमेशा (भव्वाण) भव्यों के द्वारा ( चत्तव्वं ) त्यागने योग्य हैं ।
भावार्थ- मद्य-शराब, मांस-जीवों का कलेवर, मधुशहद, मूल कंदमूल (आलू, गाजर, मूली आदि) । मक्खननवनीत, मान अभिमान और मूढ़ता अर्थात् कुदेव शास्त्र - गुरु के प्रति श्रद्धा ये सात मकार अति- दुखदायी हैं; अत: आत्महित की इच्छा करने वाले भव्य जीवों के द्वारा त्यागने-छोड़ने योग्य है ।
परसेवा य दालिद्दं, चिंता-सोगादि- संभवं । तहावमाणदो दुक्खं, णराणं णारगायदे ॥१६॥
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अन्वयार्थ- (परसेवा) दूसरों की सेवा ( दालिद्दं) दरिद्रता (य) और (चिंता-सोगादि- संभवं ) चिंता - शोकादि से उत्पन्न (तहा अवमाणदो) तथा अपमान से उत्पन्न (दुक्खं) दुःख (णराणं) मनुष्यों को (णारगायदे) नारकियों जैसा कर देता है ।
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भावार्थ - निरन्तर दूसरों की सेवा चाकरी करने, दरिद्रताअत्यन्त गरीबी, चिन्ता - तनाव, शोक आदि से तथा अपमान से
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